पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/२१०

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और मुमकिन न था कि कोई उसका यह हक छीन सके। मीर साहब ने कभीकभी बाजार जाने के लिए इस दिन उस पर सवार होने की चेष्टा की, पर इस उद्योग में बुरी तरह मुँह की खायी। घोड़े ने मुँह में लगान तक न ली। अंत में मीर साहब ने अपनी हार स्वीकार कर ली। वह उसके आत्म-सम्मान को आघात पहँचाकर अपने अवयवों को परीक्षा में न डालना चाहते थे। मीर साहब के पड़ोस में एक मुंशी सौदागरलाल रहते थे। उनका भी कचहरी से कुछ संबंध था। वह मुहर्रिर न थे, कर्मचारी भी न थे। उन्हें किसी ने कभी कुछ लिखते-पढ़ते न देखा था। पर उनका वकीलों और मुख्तारों के समाज में बड़ा मान था। मीर साहब से उनकी दाँत-कटी रोटी थी। जेठ का महीना था। बारातों की धूम थी। बाजे वाले सीधे मुँह बात न करते थे। आतिशबाज के द्वार पर गरज के बावले लोग चर्सी की भाँति चक्कर लगाते थे। भाँड़ और कथक लोगों को उँगलियों पर नचाता थे। पालकी के कहार पत्थर के देवता बने हुए थे, भेंट लेकर भी न पसीजते थे। इसी सहालोगों की धूम में मुंशी जी ने भी लड़के का विवाह ठान लिया। दबाववाले आदमी थे। धीरे-धीरे बारात का सब सामान जुटा तो लिया, पर पालकी का प्रबंध न कर सके। कहारों ने ऐन वक्त पर बयाना लौटा दिया। मुंशी जी बहुत गरम पड़े, हरजाने की धमकी दी, पर कुछ फल न हुआ। विवश होकर यही निश्चय किया कि वर को घोड़े पर बिठाकर वर-यात्रा की रस्म पूरी कर ली जाए। छह बजे शाम को बारात चलने का महर्त था। चार बजे मुंशी ने आकर मीर साहब से कहा - यार अपना घोड़ा दे दो, वर को स्टेशन तक पहुँचा दें। पालकी तो कहीं मिलती नहीं।