पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/२११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

मीरसाहब - आपको मालूम नहीं, आज इतवार का दिन है। मुंशी जी - मालूम क्यों नहीं है, पर आखिर घोड़ा ही तो ठहरा। किसी न किसी तरह स्टेशन तक पहुँचा ही देगा। कौन दूर जाना है? मीरसाहब - यों आपका जानवर है ले जाइए। पर मुझे उम्मीद नहीं कि आज वह पुढे पर हाथ तक रखने दे। मुंशी जी - अजी मार के आगे भूत भागता है। आप डरते है। इसलिए आप से बदमाशी करता है। बच्चा पीठ पर बैठ जाएँगे तो कितना ही उछले-कूदे पर उन्हें हिला न सकेगा। मीरसाहब - अच्छी बात है, जाइए। और अगर उसकी यह जिद आप लोगों ने तोड़ दी, तो मैं आपका बड़ा एहसान मानूँगा। मगर ज्यों ही मुंशी जी अस्तबल में पहुँचे, घोड़े ने शशंक नेत्रों से देखा और एक बार हिनहिना कर घोषित किया कि तुम आज मेरी शांति में विघ्न डालने वाले कौन होते हो। बाजे की धड़-धड़, पों-पों से वह उत्तेजित हो रहा था। मुंशी जी ने जब पगहे को खोलना शुरू किया तो उसने कनौतियाँ खड़ी की और अभिमानसूचक भाव से हरी-हरी घास खाने लगा। लेकिन मुंशी जी भी चतुर खिलाड़ी थे। तुंरत घर से थोड़ा-सा दाना मँगवाया और घोड़े के सामने रख दिया। घोड़े ने इधर बहुत दिनों से दाने की सूरत न देखी थी। बड़ी रुचि से खाने लगा और तब कृतज्ञ नेत्रों से मुंशी जी की ओर ताका, मानो अनुमति दी कि मुझे आप के साथ चलने में कोई आपत्ति नहीं है।