पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/११६

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नैराश्य बाजे आदमी अपनी स्त्री से इसलिए नाराज रहते हैं कि उसके लड़कियाँ हो क्यों होती हैं, लड़के क्यों नहीं होते। वह जानते हैं कि इसमें स्त्री का दोष नहीं है, या है तो उतना हो, जितना मेरा, फिर भो मन देखिए, स्त्रो से रूठे रहते हैं, उसे अभागिनी कहते हैं और सदैव उनका दिल दुखाया करते हैं। निरुपमा उन्हीं अभागिनो स्त्रियों में थी और घमण्डीलाल निराठो उन्ही अत्याचारी पुरुषों में। निरु- पमा के तीन बेटियां लगातार हुई थी और वह सारे घर को निगाहों से गिर गई थी। सास-ससुर की अप्रसन्नता की तो उसे विशेष चिन्ता न थी, वे पुराने जमाने के लोग थे, जग लड़कियां गरदन का बोझ और पूर्वजन्मों का पाप सममो जातो थों। हाँ, उसे दुख अपने पतिदेव को अप्रसन्नता का था जो पढ़े-लिखे आदमी होकर भी उसे जलो-कटी सुनाते रहते थे । प्यार करना तो दूर रहा, निरुपमा से सोधे मुंह बात न करते, छई-मई दिनों तक घर हो में न आते और आते भी तो कुछ इस तरह खिचे तने हुए रहते कि निरुरमा थर-थर कापती रहती भो, कहीं गरज न उठे । घर में धन का अभाव न था, पर निरुपमा को को यह साइस न होता था कि किसो सामान्य वस्तु को इच्छा भी प्रस्ट कर सके। वह समझतो थी, मैं यथार्य में अभागिनी हूँ, नहीं तो क्या भगवान् मेरी कोख में लड़कियां हो रचते। पति को एक मृदु मुस- स्यान के लिए, एक मोठी बात के लिए उसका हृदय तड़पकर रह जाता था। यहां तक कि वह अपनी लड़कियों को प्यार करते हुए सकुचाती थी कि लोग कहेंगे, पोतल के नथ पर इतना गुमान करतो है। जप त्रिपाठोजो के घर में आने का समय होता तो किसी न-किसी बहाने से वह लड़कियों को उनको आँखों से दूर कर देती थी। सबसे बड़ी विपत्ति यह थी कि त्रिपाठोजो ने धमको दो धो कि अबको कन्या हुई तो मैं घर छोड़कर निकल जाऊँगा, इस नरक में क्षण-भर भो न ठहरूंगा। निरुपमा को यह चिन्ता और भी खाये जाती थी। वह मगल का व्रत रखती थो, रविवार, निर्जला एकादशो और न जाने कितने बत करती थो। स्नान-पूजा तो नित्य का नियम था । पर किमो अनुष्ठान से मनो-