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अपने को भूल जाऊँ, जरा हसू, जरा कहकदा माह, रा मन में स्फूर्ति भावे ।
केवल एक ही बूटी है, जिसमें ये गुण हैं, और वह मैं जानता हूँ। कहाँ की प्रतिज्ञा,
कहाँ का व्रत, वे बचपन की बातें थी। उस समय क्या जानता था कि मेरो यह
हालत होगी ? तब स्फूर्ति का बाहुल्य था, पैरों में शक्ति थी, घड़े पर सवार होने
को क्या जरूरत थी ? तब जवानी का नशा था। अब वह कहाँ ? यह भावना मेरे
पूर्व-सचित संयम की जड़ों को हिलाने लगी। वह नित्य नई-नई युक्तियों से सशस्त्र
होकर भाती थी । क्यों, क्या तुम्ही सबसे अधिक बुद्धिमान् हो ? सब तो पीते हैं।
जजों को देखो, इजलास छोड़कर जाते और पो आते हैं। प्राचीनकाल में ऐसे व्रत
निभ जाते थे, जब जीविका इतनी प्राणघातक न थी। लोग संगे हो न कि बड़े व्रत-
धारी की दुम बने थे, आखिर आ गये न चक्कर में ! हँसने दो, मैंने नाइक व्रत लिया।
उसी व्रत के कारण इतने दिनों तपस्या करनी पड़ी। नहीं पो, तो कौन-सा थड़ा
आदमी हो गया, कौन सम्मान पा लिया ? पहले किताबों में पढ़ा करता था, यह हानि
होती है, वह हानि होती है । मगर कहीं तो नुसान होते नहीं देखता। हाँ, पिय-
कड, मद मस्त हो जाने की बात और है। उस तरह तो अच्छो-से-अच्छो वस्तु का
दुरुपयोग भी हानिप्रद हेता है। ज्ञान भी जब सीमा से बाहर हो जाता है, तो
नास्तिकता के क्षेत्र में ना पहुंचता है। पीना चाहिए एकान्त में, चेतना को जापत
करने के लिए, सुलाने के लिए नहीं ; बस, पहले दिन प्रा जरा झिझक होगी।
फिर किसका डर है । ऐसो आयोजना करनी चाहिए कि लोग मुझे जबरदस्ती पिला
दें, जिसमें अपनी शान बना रहे। जब एक दिन प्रतिज्ञा टूट जायगी, तो फिर मुझे
अपनी सफाई पेश करने की जरूरत न रहेगी, घरवालों के सामने भी आखें नीवी न
करनी पड़ेगी।
( २ )
मैंने निश्चय किया, यह अभिनय होली के दिन हो। इस दीक्षा के लिए इससे
उत्तम मुहूर्त कौन होगा : होली पौने-पिलाने का दिन है। उस दिन पोकर मस्त हो
बाना क्षम्य है। पवित्र होलो अगर हो सकती है, तो पवित्र चोरो, पवित्र रिश्वत-
सितानी भी हो सकती है।
होली आई, भपकी बहुत इन्तजार के बाद आई। मैंने दीक्षा लेने की तैयारी
शुरू की। कई पीनेवालों को निमत्रित किया। केलनर की दुकान से हिस्को और
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१८१
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