पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२०८

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'गुरु-सन्न घर के कलह और निमन्त्रणों के अभाव से पण्डित चिन्तामणिजी के चित्त में वैराग्य उत्पन्न हुभा और उन्होंने सन्यास ले लिया तो उनके परम मित्र पण्डित स्रोटेराम शास्त्रीजी ने उपदेश दिया --मित्र, हमारा अच्छे-अच्छे साधु-महात्माओं से सत्सग रहा है। वह जन किसी भलेमानस के द्वार पर जाते हैं, तो गिड-गिटाकर हाथ नहीं फैलाते और झूठ-मूठ आशीर्वाद नहीं देने लगते कि, 'नारायण तुम्हारा चोला मस्त रखे, तुम सदा सुखी रहो।' यह तो मिखारियों का दस्तूर है। संत लोग द्वार पर जाते ही कड़कर हाँक लगाते हैं जिसमें घर के लोग चौक पड़ें और स्त्सुक होकर द्वार की और दौड़े। मुझे दो चार प्रसिद्ध वाणियाँ मालूम हैं, जो चाहे प्रहण कर लो। गुदड़ी बाषा कहा करते थे-मरें तो पाँचौ मरें। यह कलकार सुनते ही लोग उनके पैरों पर गिर पड़ते थे। सिद्ध भगत की हाक बहुत उत्तम थी-'खाओ, पीयो, चैन करो, पहनो गहना ; पर पाबाली के छोटे से डरते रहना।' नङ्गा बाबा कहा करते थे-दे तो दे, नहीं दिला दे, खिला दे, पिला दे, सुला दे।' यह समझ लो कि तुम्हारा भादर-सत्कार बहुत कुछ तुम्हारी हाँक के ऊपर है। और क्या कहूँ ? भूलना मत। हम और तुम बहुत दिनों साथ रहे, सैकड़ों भोज साथ खाये। जिस नेवते में हम और तुम दोनों पहुँचते थे, तो बाग-डाट से एक-दो पत्तल और उमा जाते थे। तुम्हारे बिना अब मेरा रा न जमेगा, ईश्वर तुम्हें सदा सुगन्धित वस्तु दिखाये। चिन्तामणि को इन वाणियों में एक भी पसद न आई । बोले-मेरे लिए कोई पाणी सोचो। मोटेराम-भच्छा, यह वाणी फैसी है कि न होगे तो इम चढ बैठेगे चिन्तामणि-हाँ, यह मुझे पसन्द है। तुम्हारी आज्ञा हो तो इसमें काट- छोर इर। मोटेराम-हो-हा, करो। चिन्ता--अच्छा, तो इसे इस भांति रखो, न देगा तो हम चढ़ बैठेगे।