नागरापर
गया।
फिर ध्वनि हुई-खुशामदियों की क्षय !
सेठजी ने उच्च स्वर से कहा-जी हुजूरों को क्षय
यह कहकर वह समस्त उपस्थित जनों को विस्मय में डालते हुए मच पर जा
पहुंचे और गम्भीर भाव से बोले-सज्जनो, मित्रो। मैंने अब तक आपसे असहयोग
किया था। उसे क्षमा कीजिए । मैं सच्चे दिल से आपसे क्षमा मांगता हूँ। मुझे घर
का भेदी, जासूस या विभीषण न समझिए । आज मेरी आँखों के सामने से परदा हट
आज इस पवित्र प्रेममयो होली के दिन मैं आपसे प्रेमालिंगन करने आया हूँ।
अपनी विशाल उदारता का आचरण कीजिए। आपते द्रोह करने का आज मुझे दंड
मिले गया। जिलाधीश ने आज मेरा घोर अपमान डिया। मैं वहाँ से इंटरों की मार
खाकर आपकी शरण आया हूँ। मैं देश का द्रोही था, जाति का शत्रु, था। मैंने अपने
स्वार्थ के वश, अपने अविश्वास के वश, देश का बड़ा भहित किया, खूष झांटे बोये।
उनका स्मरण करके ऐसा जी चाहता है कि हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर दूं। [(एक
आवाज )-हाँ, अवश्य कर दीजिए, भारसे न पने तो मैं तैयार हूँ। (प्रधान की
आवाज)- यह कटु वाक्यों का अवसर नहीं है । ] नहीं, आपको यह कष्ट उठाने की
जरूरत नहीं, मैं स्वय यह काम भली-भांति कर सकता हूँ, पर अभी मुझे बहुत कुछ
प्रायश्चित्त करना है, जाने कितने पापों की पूर्ति करनी है। आशा करता हूँ कि जीवन
के बचे हुए दिन इसी प्रायश्चित्त करने में, यहीं मुंह की कालिमा धोने में काहूँ।
आपसे केवल इतनी ही प्रार्थना है कि मुझे आत्म-सुधार का अवसर दीजिए, मुझ पर
विश्वास कीजिए और मुझे अपना दोन सेवक समलिए । मैं आज से अपना तन, मन,
धन, सब आप पर अर्पण करता हूँ।
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२२९
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