निर्वासन . मर्यादा-और क्या करतो? वह मुझे समिति के कार्यालय में ले गया। वहां एक शामियाने में एक लम्बो डाढ़ीवाला मनुष्य बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। वही उन सेवकों का अध्यक्ष था। और भी कितने हो सेवक वहां खड़े थे। उसने मेरा पता-ठिकाना रजिस्टर में लिखकर मुझे एक अलग शामियाने में भेज दिया, जहां और भी कितनी खोई हुई स्त्रियां बैठी हुई थीं। परशुराम-तुमने उसी वक्त अध्यक्ष से क्यों न कहा कि मुझे पहुंचा दीजिए ? मर्यादा-मैंने एक बार नहों, सैकड़ों बार कहा, लेकिन वह यही कहते रहे, जब तक मेला खत्म न हो जाय और सप खोई हुई स्त्रियाँ एकत्र न हो जायें, मैं भेजने का प्रबन्ध नहीं कर सकता । मेरे पास न इतने आदमों हैं, न इतना धन । परशुराम-धन को तुम्हें क्या कमी थी, कोई एक सोने की चीज़ बेच देती तो काफी रुपये मिल जाते। मर्यादा-आदमी तो नहीं थे। परशुराम--तुमने यह कहा था कि खर्च को कुछ चिन्ता न कोजिए, मैं अपना गहना बेचकर अदा कर देंगी? मर्यादा-नहीं, यह तो मैंने नहीं कहा । परशुराम-तुम्हें उस दशा में भी गहने इतने प्रिय थे ? मर्यादा-और सब स्त्रियां कहने लगी, घवराई क्यों जाती हो ? यहाँ किसी बात का डर नहीं है । हम सभी जल्द से जल्द अपने घर पहुंचना चाहती हैं, मगर क्या करें । तब में भी चुपको हो रही। परशुराम-और सब स्त्रियाँ कुएँ में गिर पड़तो तो तुम भी गिर पड़ती ? मर्यादा-जानती तो थी कि यह लोग धर्म के नाते मेरी रक्षा कर रहे हैं, कुछ मेरे नौकर या मजूर नहीं हैं, फिर आग्रह किस मुंह से करती ? यह बात भी है कि बहुत-सी स्त्रियों को यहाँ देखकर मुझे कुछ तसल्ली हो गई। परशुराम-हां, इससे बढकर तस्कीन को और क्या बात हो सकती थी ? अच्छा, वहाँ के दिन तस्कीन का आनन्द उठाती रही ? मेला तो दूसरे ही दिन उठ गया होगा? मर्यादा-रात-भरे मैं स्त्रियों के साथ उसी शामियाने में रही। परशुराम-अच्छा, तुमने मुझे तार क्यों न दिलवा दिया ?
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