स्वग को देवो
भाखों से कितने मोती पिरोये हैं । उन्होंने एक नवीन प्रेम साह से उठकर उसे गले
लगा लिया और मुसकिराकर बोले-आज तो तुमने बड़े-बड़े शस्त्र सना रखे हैं,
कहाँ मागू?
लीला ने अपने हृदय की और उँगली दिखाकर कहा-यहाँ मा बैठो। बहुत
भागे फिरते हो, अब तुम्हें बांधकर रखू गो । बाय को बहार का मानद तो उठा चुके,
भब इस अँधेरो कोठरी को भी देख लो।
सीतासरन ने लजित होकर कहा-उसे अंधेरी कोठरी मत कहो लोला ! वह
प्रेम का मानसरोवर है।
इतने में बाहर से किसी मित्र के आने की खबर आई। सीतासरन चलने लगे
तो लीला ने उनका हाथ पकड़कर कहा-मैं न जाने देगी।
सीतासरन-अभी आता हूँ।
लीला- मुझे डर लगता है, कहीं तुम चले न जाओ।
सौतासरन बाहर आये तो मित्र महाशय बोले-आज दिन-भर सोते ही रहे
क्या ? बहुत खुश नजर आते हो। इस वक्त तो वहां चलने की ठहरी थी न ?
तुम्हारी राह देख रही हैं।
सीतासरन-चलने को तो तैयार हूं, लेकिन लोला आने नहीं देती।
मित्र-निरे गाउदी हो रहे । आ गये फिर बीबी के पंजे में ! फिर किस विरते
पर गरमाये थे?
सीतासरन-लोल घर से निकाल दिया था, तब आश्रय हूँढता फिरता था।
भब उसने द्वार खोल दिये और खड़ी बुला रही है ।
भित्र-अजी, यहाँ वह आनद कहाँ ? घर को लाख समाओ तो क्या बाय हो
जायगा?
सीतासरन-मई, घर बाय नहीं हो सकता, पर स्वर्ग हो सकता है । मुझे इस
वक्त अपनी क्षुद्रता पर जितनी लज्जा आ रही है वह मैं ही जानता हूँ। जिस संतान-
शोक में उसने अपने शरीर को घुला डाला, और अपने रूप-लावण्य को मिटा दिया
उसी शोक को केवल मेरा एक इशारा पाकर उसने भुला दिया । ऐसा भुला दिया माना
कमो उसे शोक हुआ ही नहीं। मैं जानता हूँ, वह बड़े-से-बड़े कष्ट सह सकती है ।
मेरी रक्षा उसके लिए आवश्यक है। पर जब अपनी उदासीनता के कारण उसने मेरो
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/८०
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