पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२६१

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२६२ मानसरावर . बहन, अगर विनोद न पाये, तो क्या होगा ! मैं समझती थी, वह मेरी तरफ़ से उदासीन हैं, मेरी पर्वा नहीं करते, मुझसे अपने दिल की बातें छिगते हैं, उन्हें शायद मै भारी हो गई हूँ, अब मालूम हुआ, मै कैसे भयंकर भ्रम में पड़ी हुई थी। उनका मन इतना कोमल है, यह मै जानती, तो उस दिन क्यों भुवन को मुँह लगाती । मैं उस अभागे का मुंह तक न देखती । इस वक्त तो उसे देख पाऊँ, तो शायद गोली मार दूं। ज़रा तुम विनोद के पत्र को फिर पढ़ो, बहन-आप मुझे स्वाधीन बनाने चले थे। अगर स्वाधीन बनाते थे, तो भुवन से ज़रा देर मेरा बात-चीत कर लेना, क्यो इतना अखरा ? मुझे उनकी अविवलित शाति से चिढ़ होती थी। वास्तव में उनके हृदय में इस ज़रा-सी बात ने जिननी अशाति पैदा कर दी, शायद मुझमें न कर सकती। मैं किसी रमणी से उनकी रुचि देखकर शायद मुँह फुला लेती, ताने देती, खुद रोती, उन्हें रुलाती; पर इतनी जल्द भाग न जाती। मदों का घर छोड़- कर भागना तो आज तक नहीं सुना, औरते ही घर छोड़कर मैके भागती हैं, या कहीं डूबने जाती हैं, या आत्महत्या करतो हैं । पुरुष निद्वंद्व बैठे मूछो पर ताव देते हैं, मगर यहाँ उलटी गगा बह रही है-पुरुष ही भाग खड़ा हुआ ! इस अशाति की थाह कौन लगा सकता है । इस प्रम की गहराई को कौन समझ सकता है। मैं तो अगर इस वक्त विनोद के चरणों पर पड़े-पड़े मर जाऊँ, तो समझू, मुझे स्वर्ग मिल गया । बस, इसके सिवा मुझे अब और कोई इच्छा नहीं है । इस अगाध प्रेम ने मुझे तृप्त कर दिया । विनोद मुझसे भागे तो, लेकिन भाग न सके, वह मेरे हृदय से, मेरी धारणा से, इतने निकट कभी न थे। मैं तो अब भी उन्हें अपने सामने बैठ देख रही हूँ। क्या मेरे सामने फिलासोफर बनने चले थे ? कहाँ गई अापकी वह दार्शनिक गभीरता। यों अपने को धोखा देते हो ! यों अपनो श्रात्मा को कुचलते हो । अब की तो तुम भागे, लेकिन फिर भागना तो देखू गी। न जानती थी कि तुम ऐसे चुतुर बहुरूपिये हो । अब मैने समझा, और शायद तुम्हारी दार्शनिक गभीरता को समझ में भी आया होगा कि प्रेम जितना ही सच्चा, जितना ही हार्दिक होता है उतना ही कोमल होता है । वह विपत्ति के उन्मत्त सागरामे थपेड़े खा सकता है, पर अवहेलना की एक चोट भी नहीं सह सकता । बहन, बात विचित्र है, पर है सच्ची, मैं