पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२६९

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२७० मानसरोवर 'उनसे पूछने की कोई ज़रूरत नहीं । कर्ता-धर्ता जो कुछ हैं, वह अम्मा हैं । दादाजी मिट्टी के लोंदे हैं।' 'घर के स्वामी तो हैं । 'तुम्हें चलना है या नहीं, साफ कहो ।' 'मैं तो अभी न जाऊँगी।' 'अच्छी बात है, लात खायो।' मैं कुछ नहीं बोली। आनंद ने एक क्षण के बाद फिर कहा-तुम्हारे पास कुछ रुपये हो, तो मुझे दो । मेरे पास रुपये थे, मगर मैंने इनकार कर दिया। मैंने समझा, शायद असमंजस में पडकर वह रुक जाय । मगर उन्होंने बात मन में ठान ली थी। खिन्न होकर बोले-अच्छी बात है, तुम्हारे रुपयों के बगैर भी मेरा काम चल जायगा । तुम्हें यह विशाल भवन, यह सुख-भोग, ये नौकर-चाकर, ये ठाट-बाट मुबारक हो । मेरे साथ क्यों भूखो मरोगी । वहाँ यह सुख कहाँ । मेरे प्रम का मूल्य ही क्या। यह कहते हुए वह चले गये। बहन, क्या कहूँ, उस समय अपनी वेबसी पर कितना दुःख हो रहा था । बस, यही जी में आता था कि यमराज पाकर मुझे उठा ले जायें। मुझ कुलकलंकिनी के कारण माता और पुत्र मे यह वैमनस्य हो रहा था । जाकर अम्माजी के पैरों पर गिर पड़ी और रो-रोकर आनद बाबू के चले जाने का समाचार कहा। मगर माताजी का हृदय जरा भी न पसीजा । मुझे श्राज मालूम हुआ कि माता भी इतनी वज्रहृदया हो सकती है। फिर आनद बाबू का हृदय क्यो न कठोर हो। अपनी माता न्ही के पुत्र तो हैं। माताजी ने निर्दयता से कहा-तुम उसके साथ क्यो न चली गई । जब वह कहता था, तब चला जाना चाहिए था। कौन जाने यहाँ मैं किसी दिन तुम्हें विष दे दूं। मैंने गिड़गिड़ाकर कहा-अम्माजी, उन्हें बुला भेजिए, आपके पैरों, पड़ती हूँ। नहीं तो कहीं चले जायेंगे। अम्मा उसी निर्दयता से बोली-जाय चाहे रहे, वह मेरा कौन है । अत्र