दो सखियाँ २७३ अम्मा -समझाया नहीं अपना सिर । तुम समझाते और वह यों ही चला जाता। क्या सारी लच्छेदार बाते मुझो से क ने को है। इस बहू को' मैं क्या कहूँ। मेरे पति ने मुझसे इतनी बेरुखी की होती, तो मै उसकी सूरत न देखती। पर, इसपर, उसने न जाने कौन-सा जादू कर दिया है। ऐसे उदामियों को तो कुलटा चाहिए, जो उन्हें तिगनी का नाच नचाये । कोई अाध घटे बाद कहार ने आकर कहा- बाबूजी अाकर कमरे में बैठे हुए हैं। मेरा कलेजा धक-धक करने लगा। जी चाहता था कि जाकर पकड़ लाऊँ, पर अम्माजी का हृदय सचमुच वज्र है। बोलीं-जाकर कह दे, यहाँ उनका कौन बैठा हुआ है, जो आकर बैठे हैं । मैंने हाथ जोडकर कहा-अम्माजी, उन्हें अदर बुला लीजिए, कहीं फिर न चले जाय। अम्मा-यहां उसका कौन बैठा हुआ है, जो आयेगा। मै तो अदन कदम न रखने दूंगी। अम्माजी तो बिगड रही थी, उधर छोटी ननदजी जाकर आनद बाबू को लाई । सचमुच उनका चेहरा उतरा हुआ था, जैसे महीनो का मरीज़ हो । ननदजी उन्हें इस तरह खींचे लाती थीं, जैसे कोई लड़की ससुराल जा रही हो। अम्माजी ने मुसकिराकर कहा-इसे यहाँ क्यो लाई ? यहाँ इसका कौन बैठा हुआ है ? आनद सिर झुकाये अपराधियों की भांति खड़े थे। ज़बान न खुलती यो ! अम्माजी ने फिर पूछा-चार दिन कहाँ थे ? 'कहीं नहीं, यही तो था ।' 'खूब चैन से रहे होगे। 'जी हो, कोई तकलीफ न थी।' 'वह तो सूरत ही से मालूम हो रहा है ।' ननदजी जल-पान के लिए मिठाई लाई। आनद मिठाई खाते इस तरह झेप रहे थे, मानों ससुराल आये हों। फिर माताजी उन्हें लिये हुए अपने कमरे में चली गई । वहाँ आध घटे तक माता और पुत्र में बाते
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