पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२९५

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२९६ मानसरोवर मुझे ४५) मिले। मगर रजिस्टर में मेरे नाम के सामने वही ३०) लिखे थे। बड़े बाबू ने अकेले बुलाकर मुझे रुपये दिये और ताकीद कर दी कि किसी से कहना मत, नहीं तो दफ्तर मे बावेजा मच जायगा | साहब का हुक्म है कि यह बात गुप्त रक्खी जाय । मुझे संतोष हो गया कि किसी सहकारी का गला घोटकर मुझे रुपये नहीं दिये गये। खुश खुश रुपये लिये हुए सीधा दानू बाबू के पास पहुंचा। वह मेरी बाके खिली देखकर बोले-'मार लाये, तरक्की क्यों ?' 'हाँ यार, रुपये तो १५) मिले ; लेकिन तरक्की नहीं हुई, किसी और मद से दिये गये हैं। 'तुम्हें रुपये से मतलब है, चाहे किसी मृद से मिले, तो अब बीबी को लेने जाओगे 'नहीं, अभी नहीं। 'तुमने तो कहा था, आमदनी बढ़ जायगी, तो बीबी को लाऊँगा, अब क्या हो गया ? 'मै सोचता हूँ, पहले आपके रुपये पटा हूँ। अब से ३०) महीने देता जाऊँगा, साल भर में पूरे स्पये पट जायेंगे । तब मुक्त हो जाऊँगा।' दानू बाबू की आँ खे सजल हो गई। मुझे आज अनुभव हुआ कि उनकी इस कठोर प्राकृति के नीचे कितना कोमल हृदय छिपा हुआ था । बोले- 'नहीं, अबकी मुझे कुछ मत दो। रेल का खर्च पड़ेगा, वह कहाँ से दोगे । जाकर अपनी स्त्री को ले आयो।' मैंने दुविधा में पड़कर कहा-'यार, अभी न मजबूर करो। शायद किश्त न अदा कर सकूँ तो दानू बाबू ने मेरा हाथ पकड़कर कहा-'तो कोई हरज नहीं । सच्ची बात यह है कि मै अपनी घड़ी के दाम पा चुका । मैंने तो उसके २५ २५), ही दिये थे। उसपर ३ साल काम ले चुका था। मुझे तुमसे कुछ न लेना चाहिए था । अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित हूँ।' मेरी आँखे भी भर श्राई। जी में तो पाया, घड़ी का सारा रहस्य कह सुनाऊँ, लेकिन जब्त कर गया । गद्गद कंठ से बोला-नहीं दानू बाबू, +