पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१००

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मानसरोवर n जितनी उस समय थीं। जव देवताओ के समक्ष मैने आजीवन पत्नीव्रत लिया था, तव मुझसे तुम्हारा परिचय न था। अव तो मेरी देह और मेरी आत्मा का एक-एक परमाणु तुम्हारे अक्षय प्रेम से आलोकित हो रहा है। उपहास और निन्दा तो वात ही क्या है, दुर्दैव का कठोरतम आघात भी मेरे व्रत भग नहीं कर सकता। अगर डूबेंगे, तो साथ-साथ डूबेंगे, तरेंगे तो साथ-साथ तरेंगे। मेरे जीवन का मुख्य कर्तव्य तुम्हारे ति है । ससार इसके पीछे-बहुत पीछे है। गोविन्दी को जान पड़ा, उसके सम्मुख कोई देव-मूर्ति खड़ी है। स्वामी मे इतनी श्रद्धा, इतनी भक्ति, उसे आज तक कभी न हुई थी। गर्व से उसका मस्तक ऊँचा हो गया और मुख पर स्वर्गीय आभा झलक पडी। उसने फिर कुछ कहने का साहस न किया। (६) सम्पन्नता अपमान और वहिष्कार को तुच्छ समझती है। उनके अभाव मे ये वाधाएँ प्राणान्तक हो जाती हैं। ज्ञानचन्द्र दिन-के-दिन घर मे पड़े रहते। घर से बाहर निकलने का उन्हें साहस न होता था। जव तक गोविन्दी के पास गहने थे, तब तक तो भोजन की चिन्ता न थी। किन्तु, जव यह आधार भी न रह गया, तो हालत और भी खराब हो गई। कभी-कभी निराहार रह जाना पड़ता । अपनी व्यथा किससे कहें, कौन मित्र था ? कौन अपना था ? गोविन्दी पहले भी हृष्ट-पुष्ट न थी , पर अव तो अनाहार और अन्तर्वदना के कारण उसकी देह और भी जीर्ण हो गई थी। पहले शिशु के लिए दूध मोल लिया करती थी। अब इसकी सामर्थ्य न थी। वालक दिन-दिन दुर्बल होता जाता था। मालूम होता था, उसे सूरवे का रोग हो गया है। दिन-के-दिन बच्चा खुरी खाट पर पड़ा माता को नैराश्य-दृष्टि से देखा करता। कदाचित् उसकी बाल-बुद्धि भो अवस्था को समझती थी। कभी किसी वस्तु के लिए हठ न करता। उसकी वालोचित सर- लता, चञ्चलता और क्रीडा-शीलता ने अब एक दीर्घ, आशाविहीन प्रतीक्षा का रूप धारण कर लिया था। माता-पिता उसकी दशा देखकर मन-ही-मन कुढ-कुढकर रह जाते थे। सन्ध्या का समय था । गोविन्दी अँधेरे घर में वालक के सिरहाने चिन्ता में मग्न बैठी थी। आकाश पर बादल छाये हुए थे और हवा के झोंके उसके अर्द्धनग्न शरीर