९८ मानसरोवर वहुत जी चाहता है कि जाकर उसे देख आऊँ । लेकिन जाने का हुकुम नहीं है । पेट पालना है, तो हुकुम मानना पड़ेगा। तुमने बतलाया ही नहीं, नहीं तो लाला. के लिए दूध का तोड़ा थोड़ा ही है । मैं क्या चली आई कि तुमने उसका मुंह देखने को भी तरसा डाला । मुझे कभी पूछता है ? यह कहते हुए कालिन्दी ने दुध का मटका गोविन्दी के हाथ में रख दिया । गोविन्दी की आँखों से आँसू बहने लगे। कालिन्दी इतनी दया करेगी, इसकी उसे आशा नहीं थी । अव उसे ज्ञात हुआ कि यह वही दयाशीला, सेवा-परायणा रमणी है, जो हले थी। लेशमात्र भी अन्तर न था । बोली- इतना दूध लेकर क्या करूँगी वहन, इस लुटिया में डाल दो। कालिन्दी-दूध छोटे-बड़े सब खाते हैं । ले जाओ, (धीरे से ) यह मत समझो, कि मैं तुम्हारे घर से चली आई, तो विरानी हो गई। तुम्हारा शील और स्नेह कभी न भूलूंगी। हाँ, निन्दा सुनने का साहस नहीं था। भगवान् की दया से अब यहाँ किसी बात की चिन्ता नहीं है । मुझसे कहने की देर है । हाँ, मैं आऊँगी 'नहीं। इससे लाचार हूँ। कल किसी बेला लाला को लेकर नदो-किनारे आ जाना। देखने को बहुत जी चाहता है। गोविन्दी दूध की हांड़ी लिये घर चली, गर्व-पूर्ण आनन्द के मारे उसके पैर उड़े जाते थे। ड्योढी में पैर रखते ही वोलो-जरा दिया दिखा देना, यहाँ कुछ सुझाई नहीं देता। ऐसा न हो, दूध गिर पड़े। ज्ञानचन्द्र ने दीपक दिखा दिया। गोविन्दी ने बालक को अपनी गोद में लेटाकर कटोरी से दूध पिलाना चाहा , पर एक चूंट से अधिक दूध कण्ठ में न गया । वालक ने हिचकी ली और अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी । करुण रोदन से घर गूंज उठा । सारी वस्ती के लोग चौंक पड़े ; पर जब मालूम हो गया कि ज्ञानचन्द्र के घर से आवाज़ आ रही है, तो कोई द्वार पर न आया । रात- भर भग्न-हृदय दम्पती रोते रहे । प्रात काल ज्ञानचन्द्र ने शव उठा लिया और श्मशान की ओर चले। सैकड़ों आदमियों ने उन्हें जाते देखा ; पर कोई समीप न आया ! ( ७ ) कुल-मर्यादा ससार की सबसे उत्तम वस्तु है। उस पर प्राण तक न्योछावर कर दिये जाते हैं । ज्ञानचन्द्र के हाथ से वह वस्तु निकल गई, जिस पर उन्हें गौरव था । ..
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१०२
दिखावट