आँसुओ की होलो १५७ घर पण्डितजी का रग उड़ गया। आंखें फाड़कर बोले-होली खेलने +1 में तो होली खेलता ही नहीं । कभी नहीं खेला । होली खेलना होता, तो घर में छिपकर क्यों बैठता। 'औरों के साथ मत खेलो , लेकिन मेरे साथ तो खेलना ही पड़ेगा।' 'यह मेरे नियम के विरुद्ध है। जिस चीज़ को अपने घर मे उचित समझू, उसे किस न्याय से घर के बाहर अनुचित समझू, सोचो।' चम्पा ने सिर नीचा करके कहा ऐसी कितनी बातें उचित समझते हो, जो घर के बाहर करना अनुचित ही नहीं, पाप है। पण्डितजी झेपते हुए बोले-अच्छा भाई, तुम जोती, में हारा । अव में तुमसे यही दान मांगता हूँ 'पहले मेरा पुरस्कार दे दो, पीछे मुझसे दान मांगना'-यह कहते हुए चम्पा ने लोटे का रंग उठा लिया और पण्डितजी को सिर से पांव तक नहला दिया। जब तक वह उठकर भागे, उसने मुट्ठीभर गुलाल लेकर सारे मुंह मे पोत दिया। पण्डितजी रोनी सूरत बनाकर बोले-अभी और कुछ कसर वाकी हो, तो वह भी पूरी कर लो। मैं न जानता था कि तुम मेरी आस्तोन का सांप बनोगी। अव और कुछ रग वाकी नहीं रहा ? चम्पा ने पति के मुख की ओर देखा, तो उस पर मनोवेदना का गहरा रग मलक रहा था। पछताकर बोली- क्या तुम सचमुच बुरा मान गये हो ? में तो समझती थी कि तुम केवल मुझे चिढ़ा रहे हो। श्रीविलास ने कांपते हुए स्वर मे कहा-नहीं चम्पा, मुझे बुरा नहीं लगा। हाँ, तुमने मुझे उस कर्तव्य को याद दिला दी, जो मैं अपनी कायरता के कारण भूला वेठा था । वह सामने जो चित्र देरा रही हो, मेरे परम मित्र मनहरनाथ का है। जो अब सगार में नहीं है। तुमसे क्या कहूँ, क्तिना सरस, कितना भावुक, कितना साहसी आदमी था। देश की दशा देख-देखकर उसका खून जलता रहता था। १९-२० भी कोई उम्र होती है। पर वह उसी उम्र में अपने जीवन का मार्ग निश्चित कर चुका था। सेवा करने का अवसर पाकर वह इस तरह उसे पकड़ता था, मानो सम्पत्ति हो। जन्म का विरागी था। वासना तो उसे छू ही न गई थी। हमारे और साथी सैर- रापाटे करते थे , पर उसका मार्ग सबसे अलग या । सत्य के लिए प्राण देने को तैयार,
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