पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१६३

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आँसुओं की होली १५९ था। घर चला आया अगर मुझमे वह सेवा-भाव न था, तो उसे मुझे या विकारने का कोई अधिकार न पर वह बातें वरावर मेरे कानो में गूंजती रहीं। होली का सारा सज़ा विगढ़ गया। 'एक महीने तक हम दोनों से मुलाकात न हुई। कालेज इम्तहान की तैयारी के लिए वन्द हो गया था। इसी लिए कालेज में भी भेट न होती थी। मुझे कुछ खबर नहीं, वह कब और कैसे बीमार पड़ा, कब अपने घर गया । सहसा एक दिन मुझे उसका एक पत्र मिला । हाय ! उस पत्र को पढकर आज भी छाती फटने लगती है।' श्रीविलास एक क्षण तक गला रुक जाने के कारण चोल न सके। फिर वोले- किसो दिन तुम्हें फिर दिखाऊँगा । लिखा या, मुझसे आखिरी बार मिल जाओ, अव शायद इम जीवन में भेंट न हो । सत मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़ा । उसका घर मेरठ के जिले में था। दूसरी गाड़ी जाने मे आव धण्टे की कसर थी । तुरन्त चल पड़ा । मगर उसके दर्शन न बटे थे। मेरे पहुंचने के पहले ही वह सिधार चुका था । चम्पा, उसके बाद मैंने होली नहीं खेली। होली ही नहीं, और सभी त्योहार छोड दिये । ईश्वर ने शायद मुझे क्रिया की शक्ति नहीं दी । अव बहुत चाहता हूँ कि कोई मुझसे सेवा का काम ले । खुद आगे नहीं बढ सकता , लेकिन पीछे चलने को तैयार हूँ। पर मुझसे कोई काम लेनेवाला भी नहीं , लेकिन आज यह रग डालकर तुमने मुझे उस धिक्कार की याद दिला दी । ईश्वर सुझे ऐसी शक्ति दे कि मैं मन मे ही नहीं, कर्म में भी मनहरन वने । यह कहते हुए श्रीविलास ने तस्तरी से गुलाल निकाला और उस चित्र पर छिड़क- कर प्रणाम किया। 1 v 1