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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१८७

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सुजान भगत १८३ भिक्षुक ने गठरी को आजमाया। भारी थी। जगह से हिली भी नहीं। वोला-- भगतजी, यह मुझसे न वठेगी। भगत -अच्छा वताओ, किस गाँव में रहते हो ? भिक्षुक--बड़ी दूर है भगतजी, अमोला का नाम तो सुना होगा। भगत अच्छा, आगे-आगे चलो, मैं पहुंचा दूंगा। यह कहकर भगत ने ज़ोर लगाकर गठरी उठाई और सिर पर रखकर भिक्षुक के पीछे हो लिये । देखनेवाले भगत का यह पौरुष देखकर चकित हो गये। उन्हें क्या मालूम था कि भगत पर इस समय कौन-सा नशा था। आठ महीने के निरतर अवि- रल परिश्रम का आज उन्हें फल मिला था। आज उन्होंने अपना खोया हुआ अधिकार फिर पाया था । वही तलवार जो केले को भी नहीं काट सकती, सान पर चढकर लोहे को काट देती है । मानव-जीवन में लाग बड़े महत्त्व की वस्तु है। जिसमें लाग है, वह बूढा भी हो तो जवान है ; जिसमे लाग नहीं, औरत नहीं, वह जवान भी हो तो मृतक है। सुजान भगत में लाग थी और उसी ने उन्हें अमानुषीय बल प्रदान कर दिया था। चलते समय उन्होनें भोला की ओर सगर्व नेत्रो से देखा और बोले-ये भाट और भिक्षुक खड़े हैं, कोई खाली हाथ न लौटने पाये। भोला सिर झुकाये खड़ा था । उसे कुछ बोलने का हौसला न हुआ। वृद्ध पिता ने उसे परास्त कर दिया था।