ममता २५७ होली के दिन मुहर्रम का-मा शोक फैल गया। इधर उनके दरवाजे पर हजारों पुरुष- त्रियाँ अपना दुखड़ा रो रही थीं। उधर वावू साहब के हितैषो मित्रगण अपने उदार- गोल मित्र के सद्व्यवहार की प्रशसा करते । बाबू साहव दिन-भर में, इतने रग बदलते थे कि उस पर पेरिस' को परियों को भो ईर्ष्या हो सकती थी। कई बैंकों में उनके हिस्से थे। कई दूकानें थीं; किन्तु बाबू साहब को इतना अवकाश न था कि उनकी कुछ देख-भाल करते । अतिधि-सत्कार एक पवित्र धर्म है । वे सन्ची देश-हिते- पिता को उसग से कहा करते थे-अतिधि-सत्कार आदि काल से भारतवर्ष के निवासियों का एक प्रधान और सराहनीय गुण है । अभ्यागतो का आदर-सम्मान करने में हम अद्वितीय हैं। हम इसी से ससार में मनुष्य कहलाने योग्य हैं। हम सब कुछ खो बैठे हैं, किन्तु जिस दिन हममें यह गुण शेप न रहेगा, वह दिन हिन्दू-जाति के लिए लज्जा, अपमान और मृत्यु का दिन होगा। मिस्टर रामरक्षा जातोय आवश्यकताओं से भी वेपरवाह न थे। वे सामाजिक और राजनीतिक कार्यों में पूर्णरूप से योग देते थे। यहां तक कि प्रतिवर्ष दो, वल्कि कभी-कभी तीन वक्त ताएँ अवश्य तैयार कर लेते। भाषणों की भाषा अत्यन्त उपयुक्त, ओजस्वी और सर्वाज-सुन्दर होती थी। उपस्थित जन और इष्टमित्र उनके एक-एक शब्द पर प्रशसा-सूचक शब्दों को ध्वनि प्रकट करते, तालियां बजाते, यहाँ तक कि बाबू साहब को व्याख्यान का क्रम स्थिर रखना कठिन हो जाता। व्याख्यान समाप्त होने पर उनके मित्र उन्हें गोद में उठा लेते और आश्चर्यचकित होकर कहते-तेरी भापा मे जादू है। सारांश यह कि बाबू साहब का यह जातोय प्रेम और उद्योग केवल बनावटी, सहृदयताशून्य तया फैशनेविल था। यदि उन्होंने किसी सदुपयोग में भाग लिया था, तो वह सम्मिलित कुटुम्ब का विरोध था। अपने पिता के देहान्त के पक्षात् वे अपनी विधवा मां से अलग हो गये थे। इस जातीय सेवा में उनकी स्त्री विशेष सहायक थी । विधवा मां अपने बेटे और बहू के साथ नहीं रह सकती। इससे यह को स्वाधीनता में विन्न पड़ता है और स्वाधीनता मे चिन्न पड़ने से मन दुर्वल और मस्तिष्क शक्तिहीन हो जाता है । वह को जलाना और कुहाना सास को आदत है। इसलिए पाबू रामरक्षा अपनी मां से अलग हो गए। इसमे सन्देह नहीं कि उन्होंने मातृग का विचार करके दस हजार रुपये अपनी मां के नाम जमा कर दिये कि उसके व्याज से उसका निहि होता रहे; किन्तु वेटे के इस उत्तम आचरण पर 1 १७
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