प्रायश्चित्त २८५ मदारी और सुबोध के ग्रहों में ही विरोध था। दोनों एक ही दिन, एक ही शाला में भरती हुए, और पहले ही दिन से दिल में ईर्ष्या और द्वष को वह चिनगारी पड़ गई, जो आज वीस वर्ष बीतने पर भी न बुझी थी। सुवोध का अपराध यही था कि वह मदारीलाल से हर एक बात में बढ़ा हुआ था। डोल-डौल, रग-रूप रीति-व्यवहार, विद्या-बुद्धि ये सारे मैदान उसके हाथ थे। मदारीलाल ने उसका यह अपराध कभी क्षमा नहीं किया। सुबोध वीस वर्ष तक निरन्तर उनके हृदय का काँटा बना रहा। जब सुबोध डिग्री लेकर अपने घर चला गया और मदारी पेल होकर इस दफ्तर में नौकर हो गये, तब उनका चित्त शान्त हुआ, और जब यह मालूम हुआ कि सुबोध वसरे जा रहा है, तब तो मदारीलाल का चेहरा खिल उठा। उनके दिल से वह पुरानो फास निकल गई। पर हा हतभाग्य ! आज वह पुराना नासूर शतगुण टीस और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी किस्मत सुबोध के हाथ में थी। ईश्वर इतना अन्यायी है। विधि इतना कठोर ! जब ज़रा चित शान्त हुआ, तब मदारो ने दस्तर के क्लार्को को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा- -अब आप लोग ज़रा हाथ-पाँव संभालकर रहिएगा। सुबोधचन्द्र के आदमी नहीं हैं, जो भूलों को क्षमा कर दें? एक क्लार्क ने पूछा-क्या बहुत सख्त हैं ? मदारीलाल ने मुसकिराकर कहा -वह तो आप लोगों को दो-चार दिन हो मे मालूम हो जायगा । मैं अपने मुँह से किसी की क्यों शिकायत करूं । बस, चेतावनी दे दी कि ज़रा हाय-पांव सँभालकर रहिएगा। आदमी योग्य है, पर बड़ा ही क्रोधी, बड़ा दम्भी । गुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। खुद हज़ारों हजम कर जाय और डकार तक न ले , पर क्या मजाल कि कोई मातहत एक कौड़ी भी हजम करने पाये, ऐसे आदमी से ईश्वर ही वचाये। मैं तो सोच रहा हूँ कि छुट्टो लेकर घर चला जाऊँ। दोनों वक्त घर पर हाज़िरी बजानी होगी। आप लोग आज से सरकार के नौकर नहीं, सेक्रेटरी साहव के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढायेगा, कोई बाज़ार से सौदा-सुलफ लायेगा, और कोई उन्हें अखबार सुनायेगा। और चपरासियों के तो शायद दफ्तर में दर्शन ही न हों। इस प्रकार सारे दफ्तर को सुबोधचन्द्र की तरफ से भड़काकर मदारीलाल ने अपना कलेजा ठडा किया।
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