पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/३६

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३२ मानसरोवर " भी नहीं होता। एक बार जब होम-मेम्बर साहब ने व्यवस्थापक-सभा में मेरे एक प्रस्ताव का अनुमोदन किया था, उस वक्त मुझे कुछ उसी तरह का उल्लास, गर्व और रोमाच हुआ था। हाँ, एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पुत्र नायब तहसीलदारी में नामजद हुआ तब भी ऐसी ही तरंगे मन में उठी थीं ; पर इनमें और उस बाल- विह्वलता में वड़ा अन्तर है। तब तो ऐसा मालूम होता था कि मैं स्वर्ग मे बैठा हूँ। निषाद-नौका-लीला का दिन था। मैं दो-चार लड़कों के बहकाने में आकर गुल्ली- डड़ा खेलने लगा था ।, आज शृङ्गार देखने न गया । विमान भी निकला ; पर मैंने खेलना न छोड़ा.। मुझे अपना-दांव लेना, था। अपना दाँव छोड़ने के लिए उससे कहीं बढकर आत्मत्याग की ज़रूरत थी, जितनी - मैं कर सकता था। अगर दांव टेना होता, तो मैं कव का भाग खड़ा होता , लेकिन पदाने मे कुछ और ही बात होती है, खैर, दाँव पूरा हुआ। अगर मैं चाहता, तो धाँधली करके दस-पांच मिनट और पदा सकता था, इसकी - काफी गुञ्जाइश थी , लेकिन अब इसका मौका न था। मैं सीधे नाले की , तरफ दौड़ा। विमान जल-तट पर पहुंच चुका था। मैने दूर से देखा-मल्लाह किश्तो लिये भा रहा है। दौड़ा, लेकिन आदमियों को भीड़ में दौड़ना कठिन-था। आखिर जब मैं भीड़ हटाता, प्राण-पण से आगे बढता घाट पर पहुंचा, तो निपाद अपनी नौका खोल चुका था। रामचन्द्र पर मेरो कितनी श्रद्धा थी ! अपने पाठ की चिन्ता न करके उन्हें पढ़ा दिया करता था, जिसमें वह फेल न हो जाये। मुझसे उन ज़्यादा होने पर भी वह नीची कक्षा में पढते थे। लेकिन, वही रामचन्द्र नौका पर बैठे इस तरह मुंह फेरे चले जाते थे, मानो, मुझसे जान- पहचान ही नहीं। नक़ल में भी असल की कुछ-न-कुछ वू आ ही जाती है। भक्तो पर जिनकी निगाह सदा ही तीखी, रही है, वह मुझे क्यों उवारते ? मैं विकल होकर उस बछड़े की भांति कूदने लगा, जिसकी गरदन पर पहली बार जुआ रखा गया हो । कभी लपककर नाले , की ओर जाता, कभी किसी सहायक की खोज में पीछे की तरफ दौड़ता। पर सब-के-सव अपनी धुन मे मस्त थे; मेरी चीख-पुकार किसी के कानो तक न पहुँची। तबसे बड़ी-बड़ी विपत्तियां झेली , पर उस समय जितना दुख हुआ, उतना फिर कभी न हुआ। - मैने निश्चय किया था कि अब रामचन्द्र से कभी न बोलूंगा, न कभी खाने की कोई चीज़ ही दूंगा , लेकिन ज्यो हो नाले को पार करके वह पुल की और लोटे, ~