पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/८४

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८. . मानसरोवर 'परदेसी मुसाफिर हूँ साहव ; मुझे गोवर लेकर क्या करना है। ठाकुरजी का मन्दिर देखा, तो आकर बैठ गया । कूड़ा पड़ा हुआ था। मैंने सोचा-धर्मात्मा लोग आते होंगे ; सफाई करने लगा।' 'तुम तो मुसलमान हो न?' 'ठाकुरजी तो सबके ठाकुरजी हैं-क्या हिन्दू, क्या मुसलमान !' 'तुम ठाकुरजी को मानते हो ?' 'ठाकुरजी को कौन न मानेगा, साहब ? जिसने पैदा किया उसे न मानूंगा, तो किसे मानूंगा। भक्तों में सलाह होने लगी- 'देहाती है।' 'फाँस लेना चाहिए, जाने न पाये !' ( ३ ) जामिद फाँस लिया गया । उसका आदर-सत्कार होने लगा। एक हवादार मकान रहने को मिला । दोनों वक्त उत्तम पदार्थ खाने को मिलने लगे। दो-चार आदमी हर- दम उसे घेरे रहते। जामिद को भजन खूब याद थे । गला भी अच्छा था । वह रोज मन्दिर में जाकर कीर्तन करता । भक्ति के साथ स्वर-लालित्य भी हो, तो फिर क्या पूछना 2 लोगों पर उसके कीर्तन का वड़ा.असर पडता। कितने ही लोग संगीत के लोभ से ही मन्दिर में आने लगे। सवको विश्वास हो गया कि भगवान् ने यह शिकार चुनकर भेजा है। एक दिन मन्दिर में बहुत-से आदमी जमा हुए। आँगन में फर्श विछाया गया। जामिद का सिर मुड़ा दिया गया। नये कपड़े पहनाये गये । हवन हुआ। जामिद के हाथों से मिठाई वटवाई गई । वह अपने आश्रय-दाताओं को उदारता और धर्मनिष्टा का और भी कायल हो गया। ये लोग कितने सज्जन हैं, मुझ जैसे फटे- हाल परदेसी की इतनी खातिर ! इसी को सच्चा धर्म कहते हैं। जामिद को जीवन में कभी इतना • सम्मान न मिला था.। यहाँ वही सैलानी युवक, जिसे लोग वौड़म कहते थे, भक्तों का सिरमौर बना हुआ था। सैकड़ों ही आदमी केवल इसके दर्शनों को आते थे। उसकी प्रकाड विद्वत्ता की कितनी ही कथाएँ प्रचलित हो गई । पत्रों में यह समाचार निकला कि एक बड़े आलिम मौलवी साहब