मृत्यु के पीछे से देखकर हतोत्साह हो जाते थे। हाँ ! मैंने अपना सारा जीवन सार्वजनिक कार्यों में व्यतीत किया, खेत को बोया, सींचा, दिन को दिन और रात को रात न समझा, धूप में जला, पानी में भीगा और इतने परिश्रम के बाद जब फसल काटने के दिन आये तो मुझमें हँसिया पकड़ने का भी बूता नहीं । दूसरे लोग जिनका उस समय कहीं पता न था, अनाज काट-काटकर खलिहान भरे लेते हैं और मैं खड़ा मुँह ताकता हूँ । उन्हें पूरा विश्वास था कि अगर कोई उत्साहशील युवक मेरा शरीक हो जाता तो “गौरव" अब भी अपने प्रतिद्वन्द्वियों को परास्त कर सकता । सभ्य समाज में उनकी धाक जमी हुई थी, परिस्थिति उनके अनुकूल थी। जरूरत केवल ताज़े खून की थी। उन्हें अपने बड़े लड़के से ज़्यादा उपयुक्त इस काम के लिए और कोई न दीखता था। उसकी रुचि भी इस काम की ओर थी, पर मानकी के भय से वह इस विचार को ज़बान पर न ला सके थे। चिन्ता में दो साल गुजर गये और यहाँ तक नौवत पहुंची कि या तो "गौरव" का टाट उलट दिया जाय या इसे पुनः अपने स्थान पर पहुँचाने के लिए कटिबद्ध हुश्रा जाय । ईश्वरचन्द्र ने इसके पुनरदार के लिए अतिम उद्योग करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। इसके सिवा और कोई उपाय न था । यह पत्रिका उनके जीवन का सर्वस्व थी। इससे उनके जीवन और मृत्यु का सम्बन्ध था । उसको बन्द करने की वह कल्पना भी न कर सकते थे। यद्यपि उनका स्वास्थ्य अच्छा न था, पर प्राणरक्षा को स्वाभाविक इच्छा ने उन्हें अपना सब कुछ अपनी पत्रिका पर न्योछावर करने को उद्यत कर दिया। फिर दिन-के-दिन लिखने-पढ़ने में रत रहने लगे। एक क्षण के लिए भी सिर न उठाते । “गौरव' के लेखों में फिर सजीवता का उद्भव हुआ, विद्वजनों में फिर उसकी चर्चा होने लगी, सहयोगियों ने फिर उसके लेखों का उद्धृत करना शुरू किया, पत्रिकाओं में फिर उसकी प्रशासूचक पालोचनाएँ निकलने लगी । पुराने उस्ताद की ललकार फिर अखाड़े में गूंजने लगी। लेकिन पत्रिका के पुनःसंस्कार के साथ उनका शरीर और भी जर्जर होने लगा। हृद्रोग के लक्षण दिखाई देने लगे । रक्त की न्यूनता से मुख पर पालापन छा गया । ऐसी दशा में वह नुबह से शाम तक अपने काम में तल्लीन न्दते । देश धन प्रौर श्रम का संग्राम छिड़ा हुआ था। ईश्वरचन्द्र की सदर प्रकृति ने
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