श्राभूपण १४५ नौकरों को अपराध लगाकर आत्मरक्षा करना चाहती। पति को प्रसन्न रखने के लिए उसने अपने गुणों की, अपनी आत्मा की अवहेलना की; पर उठने के बदले वह पति की नज़रों से गिरती ही गयी। वह नित्य नये शृगार करती, पर लक्ष्य से दूर होती जाती थी। पति की एक मधुर मुसकान के लिए, उनके अधरों के एक मीठे शब्द के लिये उसका प्यासा हृदय तड़प-तड़पकर रह जाता था। लावण्यविहीन स्त्री वह भिक्षुक नहीं है, जो चंगुल-भर आटे से सन्तुष्ट हो जाय । वह भी पति का सम्पूर्ण, अखंड प्रेम चाहती है, और कदाचित् सुन्दरियों से अधिक, क्योकि वह इसके लिए असाधारण प्रयत और अनुष्ठान करती है। मगला इस प्रयत्न में विफल होकर और भी सतप्त होती थी। धीरे-धीरे पति पर से उसकी श्रद्धा उठने लगी। उसने तर्क किया कि ऐसे क्रूर, हृदय-शून्य, कल्पनाहीन मनुष्य से मैं भी उसी का-सा व्यवहार करूँगी। जो पुरुप केवल रूप का भक्त है, वह प्रेम-भक्ति के योग्य नहीं। इस प्रत्याघात ने समस्या और भी जटिल कर दी। मगर मगला को केवल अपनी रूप-हीनता ही का रोना न था। शीतला का अनुपन रूपलालित्य भी उसकी कामनाओं का बाधक था; बल्कि यही उसकी आशा-लतानों पर पड़नेवाला तुपार था। मंगला सुन्दरी न सही, पर पति पर जान देती थी । जो अपने को चाहे, उससे हम विमुख नहीं हो सकते । प्रेम की शक्ति अपार है ; पर शीतला की मूर्ति सुरेश के हृदय द्वार पर बैठी हुई मंगला को अन्दर न जाने देती थी, चाहे वह कितना ही वेप बदल कर श्रावे । सुरेश इस मूर्ति को हटाने की चेष्टा करते थे, उसे बलात् निकाल देना चाहते थे; किन्तु सौंदर्य का आधिपत्य धन के श्राधिपत्य से कम दुर्निवार नहीं होता। जिस दिन शीतला इस घर में मंगला का मुस देखने आयी थी उसी दिन सुरेश की प्राँसो ने उसकी मनोहर छवि की एक झलक देख ली थी। वह एक झलक मानो एक क्षणिक क्रिया थी, जिसने एक ही धावे में समस्त हृदय-राज्य को जीत लिया, उस पर अपना आधिपत्य नमा लिया । सुरेश एकात में बैठे हुए शीतला के चित्र को मगला से मिलाते, यह निश्चय करने के लिए कि उनमे क्या अन्तर है ! एक क्यों मन को सींचती है, दूसरी क्यों उसे हटादी है ? पर उसके मन का यह खिंचाव केवल एक चित्रकार या
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