पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१५१

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१६२ मानसरोवर 4 ( २ ) इसी प्रकार रोते-रोते रानी की आँखें लग गयीं। उसका प्यारा, कलेजे का टुकड़ा कुँवर दिलीपसिंह, जिसमें उसके प्राण वसते थे, उदास मुख आकर खड़ा हो गया । जैसे गाय दिन-भर जगलों में रहने के पश्चात् संध्या को घर आती है और अपने बछड़े को देखते ही प्रेम और उमग से मतवाली होकर स्तनों में दूध भरे, पूँछ उठाये, दौड़ती है, उसी भाँति चन्द्रकुँवरि अपने दोनों हाथ फैलाये अपने प्यारे कुँवर को छाती से लपटाने के लिए दौड़ी। परन्तु आँखें खुल गयीं और जीवन की श्राशओं की भाँति वह स्वप्न विनष्ट हो गया। रानी ने गगा की ओर देखा और कहा- -मुझे भी अपने साथ लेती चलो। इसके बाद रानी तुरन्त छत से उतरी। कमरे में एक लालटेन जल रही थी। उसके उजेले में उसने एक मैली साड़ी पहनी, गहने उतार दिये, रत्नों के एक छोटे से बक्स को और एक तीव्र कटार को कमर में रखा। जिस समय वह बाहर निकली, नैराश्यपूर्ण साहस की मूर्ति थी। सन्तरी ने पुकारा-कौन ? रानी ने उत्तर दिया-मैं हूँ झगी। 'कहाँ जाता है ? 'गगाजल लाऊँगी । सुराही टूट गयी है, रानीजी पानी माँग रही हैं।" सन्तरी कुछ समीप आकर बोला-चल, मैं भी तेरे साथ चलता हूँ, जरा रुक जा। झगी बोली मेरे साथ मत आओ । रानी कोठे पर हैं। देख लेंगी। सन्तरी को धोखा देकर चन्द्रकुँवरि गुप्त द्वार से होती हुई अँधेरे में कॉटों से उलझती, चट्टानों से टकराती, गंगा के किनारे जा पहुँची । रात आधी से अधिक जा चुकी थी। गगाजी में संतोषदायिनी शान्ति विराज रही थी। तरगें तारों को गोद में लिए सो रही थीं। चारों ओर सन्नाटा था। रानी नदी के किनारे किनारे चली जाती थी और मुड़-मुड़कर पीछे देखती यी। एकाएक एक होंगी खूटे से बँधी हुई देख पड़ी। रानी ने उसे ध्यान देखा तो मल्लाह सोया हुआ था। उसे जगाना काल को जगाना था। वह तुरन्त रस्सी खोलकर नाव पर सवार हो गयी। नाव धीरे-धीरे धार के सहारे