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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१८२

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धोखा १६६ ओर शास्त्रज्ञ शंकर थे और बाय दार्शनिक दयानन्द । एक ओर शान्तिपथगामी कवीर और भक्त रामदास यथायोग्य खड़े थे। एक दीवार पर गुरु गोविन्द अपने देश और जाति के नाम पर बलि चढ़ानेवाले दोनों बच्चों के साथ विराजमान थे। दूसरी दीवार पर वेदान्त की ज्योति फैलानेवाले स्वामी रामतीर्थ और विवेकानन्द विराजमान थे। चित्रकारों की योग्यता एक-एक अवयव से टपकती थी। प्रभा ने इनके चरणों पर मस्तक टेका। वह उनके सामने सिर न उठा सकी । उसे अनुभव होता या कि उनकी दिव्य आँखें उसके दूषित हृदय में चुभी जाती हैं। इसके बाद तीसरा भाग पाया। यह प्रतिभाशाली कवियों की सभा थी। सर्वोच स्थान पर आदिकवि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास सुशोभित थे। दाहिनी और शृङ्गाररस के अद्वितीय कवि कालिदास थे, बायीं तरफ़ गम्भोर भावों से पूर्ण भवभूति । निकट ही भर्तृहरि अपने सन्तोषाश्रम में बैठे हुए थे। दक्षिण की दीवार पर राष्ट्रभाषा हिन्दी के कवियों का सम्मेलन था । सहृदय कवि सूर, तेजस्वी तुलसी, सुकवि केशव और रसिक बिहारी ययाक्रम विराजमान ये । सूरदास से प्रभा का अगाध प्रेम था। वह समीप जाकर उनके चरणों पर मस्तक रखना ही चाहती थी कि अकस्मात् उन्हीं चरणों के सम्मुख सिर झुकाये उसे एक छोटा-सा चित्र दीख पड़ा। प्रभा उसे देखकर चौंक पड़ी। यह वही चित्र था जो उसके हृदय पट पर खिंचा हुआ था। वह खुलकर उसकी तरफ ताक न सको। दबी हुई आँखों से देखने लगी। राजा हरिचन्द्र ने मुसकराकर पूछा-इस व्यक्ति को तुमने कहीं देखा है ? इस प्रश्न से प्रभा का हृदय कॉप उठा। जिस तरह मृग-शावक व्याघ के सामने व्याकुल होकर इधर-उधर देखता है, उसी तरह प्रभा अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से दीवार की ओर ताकने लगी। सोचने लगी-क्या उत्तर दूं ? इसको कहीं देखा है, उन्होंने यह प्रश्न मुझसे क्यों किया १ कहीं ताड़ तो नहीं गये ! नारायण, मेरी पत तुम्हारे हाथ है, क्योकर इनकार करूँ ? मुँह पीला हो गया । सिर मुकाकर क्षीण स्वर से बोली- 'हाँ, ध्यान आता है कि कहीं देखा है।' हरिश्चन्द्र ने कहा-कहाँ देखा है ?