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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१८४

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घोखा २०१ हो गया । परन्तु इन कई महीनों की लगातार कोशिश से जिस बात को भुलाने में वह किंचित सफल हो चुकी थो, उसके फिर नवीन हो जाने का भय हुया । बोली -~-इस समय गाना सुनने को मेरा जी नहीं चाहता। राजा ने कहा-यह मैं न मानूँगा कि तुम और गाना नहीं सुनना चाहतीं, मैं उसे अभी बुलाये लाता हूँ। यह कहकर राजा हरिश्चन्द्र तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गये। प्रभा उन्हें रोक न सकी । वह बड़ी चिन्ता में डबी खड़ी थी। हृदय में खुशी और रंज की लहरें बारी-बारी से उठती थीं । मुश्किल से दस मिनट बीते होंगे कि उसे सितार के मस्ताने सुर के साथ योगी की रसीली तान सुनाई दी- कर गये थोड़े दिन की प्रीति वही हृदयग्राही राग था, वही हृदय-मेदी प्रभाव, वही मनोदरता और वही सब कुछ, जो मन को मोह लेता है। क्षण एक में योगी की मोहिनी मूर्ति दिखाई दी। वही मस्तानापन, वही मतवाले नेत्र, वही नयनाभिराम देवताओं का-सा स्वरूप । मुखमडल पर मन्द-मन्द मुस्कान थी। प्रभा ने उसकी तरफ सहमी हुई श्रोखों से देखा । एकाएक उसका हृदय उछल पड़ा । उसकी नॉखों आगे से एक पर्दा हट गया । प्रेम-विहल हो, आँखों में आँसू-भरे वह अपने पति के चरणारविन्दों पर गिर पड़ी, और गद्गद कंट से बोली-प्यारे ! प्रियतम! राजा हरिचन्द्र को अाज सच्ची विजय प्राप्त हुई। उन्होंने प्रभा को उठाकर छाती से लगा लिया। दोनों आज एक प्राण हो गये । राजा हरिश्चन्द्र ने कहा-जानती हो, मैंने यह स्वाँग क्यो रचा था ? गाने का मुझे सदा से व्यसन है और सुना है कि तुम्हें भी इसका शौक है । तुम्हें अपना हृदय भेंट करने से प्रथम एक बार तुम्हारा दर्शन करना आवश्यक प्रतीत हुआ और उसके लिए सबसे सुगम उपाय यही तूझ पड़ा। प्रभा ने अनुराग से देखकर कहा-योगी बनकर तुमने जो कुछ पा लिया, वह राजा रहकर कदापि न पा सकते । अब तुम मेरे पति हो और प्रियतम भी हो; पर तुमने मुझे बड़ा धोखा दिया और मेरी प्रात्मा को कलकित किया । इसका उत्तरदाता कौन होगा ?