२३४ मानसरोवर मूठ का व्यापार नहीं किया है । मैं यह नहीं कहता कि श्राप रुपये का वसूल होना अस्वीकार कर दीजिये । जब असामी मेरे ऋणी हैं, तो मुझे अधिकार है कि चाहे रुपया ऋण की मद में वसूल करूँ या मालगुजारी की मद में। यदि इतनी सी बात को श्राप झूठ समझते हैं तो आपकी जबरदस्ती है। अभी आपने ससार देखा नहीं । ऐसी सच्चाई के लिए ससार में स्थान नहीं। आप मेरे यहाँ नौकरी कर रहे हैं। इस सेवक-धर्म पर विचार कीजिए। आप शिक्षित और होनहार पुरुष हैं । अभी आपको ससार में बहुत दिन तक रहना है और बहुत काम करना है । अभी से आप यह धर्म और सत्यता धारण करेंगे तो अपने जीवन में आपको श्रापत्ति और निराशा के सिवा और कुछ प्राप्त न होगा। सत्यप्रियता अवश्य उत्तम वस्तु है, किन्तु उसकी भी सीमा है, 'अति सर्वत्र वर्जयेत् !' अब अधिक सोच-विचार की आवश्यकता नहीं । यह अवसर ऐसा ही है। कुँवर साहब पुराने खुर्राट थे । इस फैंकनैत से युवक खिलाड़ी हार गया । इस घटना के तीसरे दिन चाँदपार के आसामियों पर बकाया लगान की नालिश हुई । समन श्राये । घर-घर उदासी छा गयी। समन क्या थे, यम के दूत थे । देवी-देवताओं की मिन्नतें होने लगी। स्त्रियाँ अपने घरवालों को कोसने लगी और पुरुष अपने भाग्य को । नियत तारीख के दिन गाँव के गँवार कन्धे पर लोटा डोर रखे और अँगोछे में चवेना बौधे कचहरी को चले । सैकड़ों स्त्रियाँ और बालक रोते हुए उनके पीछे-पीछे जाते थे । मानों अब वे फिर उनसे न मिलेंगे। पण्डित दुर्गनाथ के लिए ये तीन दिन कठिन परीक्षा के थे । एक ओर कुँवर साहब की प्रभावशालिनी बातें, दूसरी ओर किसानों की हाय-हाय, परन्तु विचार सागर में तीन दिन निमम रहने के पश्चात् उन्हें घरती का सहारा मिल गया । उनकी श्रात्मा ने कहा-यह पहली परीक्षा है। यदि इसमें अनुत्तीर्ण रहे तो फिर अात्मिक दुर्बलता ही हाथ रह जायगी। निदान निश्चय हो गया कि मैं अपने लाभ के लिए इतने गरीबों को हानि न पहुँचाऊँगा । दस बजे दिन का समय था । न्यायालय के सामने मेला-सा लगा हुआ
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