पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२२३

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२४८ मानसरोवर । सहायता की जरूरत थी , पर मुझे शका हुई कि कहीं यह भी रुपये हजम न कर जाय । जब एक विचार शील, सुयोग्य, विद्वान् पुरुष धोखा दे सकता है, तो ऐसे अर्द्धशिक्षित नवयुवक से कैसे यह श्राशा की जाय कि वह अपने वचन का पालन करेगा? मैं कई मिनट तक घोर संकट में पड़ा रहा। अंत में बोला-भाई, मुके तुम्हारी दशा पर बहुत दुःख है। मगर मैं इस समय कुछ न कर सकूँगा। बिलकुल खाली हाथ हूँ । खेद है। यह कोरा जवाब सुनकर उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे । वह बोला- आप चाहें तो कुछ न कुछ प्रबन्ध अवश्य कर सकते हैं । मैं जाते ही आपके रुपये भेज दूंगा। मैंने दिल में कहा-यहाँ तो तुम्हारी नोयत साफ़ है, लेकिन घर पहुँचकर भी यही नीयत रहेगी, इसका क्या प्रमाण है ? नीयत साफ़ रहने पर भी मेरे रुपये दे सकोगे या नहीं, यही कौन जाने ? कम से कम तुमसे वसूल करने का मेरे पास कोई साधन नहीं है । प्रकट में कहा-इसमें मुझे कोई सदेह नहीं है, लेकिन खेद है कि मेरे पास रुपये नहीं हैं। हाँ, तुम्हारी जितनी तनख्वाह निकलती हो वह ले सकते हो। उसने कुछ जवाब नहीं दिया ? किं कर्तव्य विमूढ की तरह एक बार श्राकाश की ओर देखा और चला गया । मेरे हृदय में कठिन वेदना हुई। अपनी स्वार्थपरता पर ग्लानि हुई। पर श्रत को मैंने जो निश्चय किया था, उसी पर स्थिर रहा । इस विचार से मन को सतोप हो गया कि मैं ऐसा कहाँ का धनी हूँ जो यों रुपये पानी में फेंकता फिरूँ। यह है उस कपट का परिणाम, जो मेरे कवि मित्र ने मेरे साथ किया । मालूम नहीं, आगे चलकर इस निर्दयता का क्या कुफल निकलता ; पर सौमाग्य से उसकी नौबत न आई । ईश्वर को मुझे इस अपयश से बचाना मजूर था। जब वह आँखों में आँसू-मरे मेरे पास से चला, तो कार्यालय के एक क्लर्क, प० पृथ्वीनाथ से उसकी भेंट हो गयी । पण्डितजो ने उससे हाल पूछा । पूरा वृत्तात सुन लेने पर बिना किसी आगे पीछे के उन्होंने १५) निकालकर उसे दे दिये । ये रुपये उन्हें कार्यालय के मुनीम से उधार लेने पड़े । मुझे यह