आप बीती
२४६
2
H
हाल मालूम हुआ, तो हृदय के ऊपर से एक बोझ-सा उतर गया। अप वह
वेचारा मजे से अपने घर पहुँच जायगा । यह मंयोष मुफ्त ही में प्राप्त हो गया ।
कुछ अपनी नीचता पर लज्जा भी श्राई । मैं लंबे-लंबे लेखों में दया, मनुष्यता
और सद्व्यवहार का उपदेश किया करता था ; पर अवसर पड़ने पर साफ़ जान
बचाकर निकल गया ! और, यह वेवाग क्लर्क, जो मेरे लेखों का भक्त था,
इतना उदार और दयाशील निकला ! गुरू गुह ही रहे, चेला शक्कर हो गये।
खैर, उसमें भी एक व्यग्य-पूर्ण संतोप था कि मेरे उपदेशों का असर मुझ पर
न हुआ, न सही ; दूसरों पर तो हुआ! चिराग़ के तले अंधेरा रहा तो क्या
हुआ, उसका प्रकाश तो फैल रहा है ! पर, कहीं बचा को रुपये न मिले
(और शायद ही मिलें, इसकी बहुत कम आशा है ) तो खूब छकेंगे। हजरत
को श्रादे हाथी लूँगा। किन्तु मेरी यह अभिलापान पूरी हुई । पाँचवें दिन
रुपये श्रागये। ऐसी और आँखें खोल देनेवाली यातना मुझे और कभी नहीं
मिली थी। खैरियत यही थी कि मैंने इस घटना की चर्चा स्त्री से नहीं की थी
नहीं तो मुझे घर में रहना भी मुश्किल हो जाता।
( ३ )
उपर्युक्त वृत्तात लिखकर मैंने एक पत्रिका में भेज दिया। मेरा उद्देश्य केवल
यह था
जनता के सामने कपट-व्यवहार के कुपरिणाम का एक दृश्य रखें।
मुझे स्वप्न में भी अाशा न थी कोई प्रत्यत फल निकलेगा। इसी से जब चौथे
दिन अनायास मेरे पास ७३) का मनीआर्डर पहुंचा, तो मेरे अानन्द की सीमा
न रही । प्रेषक वही महाशय थे---उमापति | मन पर केवल "क्षमा" लिखा
हुआ था। मैंने रुपये ले जाकर पनो के हाथों में रख दिये और न
दिखलाया।
उसने अनमने भाव से कहा-
-इन्हें ले जाकर यन से अपने संदूक में रखो।
तुम ऐसे लोभी प्रकृति के मनुष्य हो,यह मुझे अाज मालूम हुआ। योहे-से रुपयों
के लिए किसी के पीछे पजे झाड़कर पड़ जाना सजनता नहीं है। जब कोई
शिक्षित और विचारशील मनुष्य अपने वचन का पालन न करे, तो यही सम-
झना चाहिए कि वह विवश है। विवश मनुष्य को बार-बार तकाजों से लजित
करना भलमंसी नहीं है । कोई मनुष्य, जिसका सर्वया नैतिक पतन नहीं हो गया
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२२६
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
