“२५२ मानसरोवर तो वपनी का रेजिडेंट उसका घोर विरोध और राज्य पर विद्रोहात्मक शक्ति- सचार का दोषारोपण करता था। उधर से हॉट पड़ती, तो बादशाह अपना गुस्सा राजा साहब पर उतारते । बादशाह के सभी अंग्रेज मुसाहब राजा साहब से शकित रहते और उनकी पड खोदने का प्रयास किया करते थे। पर वह . राज्य का सेवक एक ओर अवहेलना और दूसरी ओर से घोर विरोध सहते हुए भी अपने कर्तव्य का पालन करता जाता था। मजा यह कि सेना भी उनसे सतुष्ट न थी। सेना में अधिकाश लखनऊ के शोहदे और गुडे भरे हुए थे। राजा साहब जब उन्हें हटाकर अच्छे-अच्छे जवानों को मरती करने की चेष्टा करते, तो सारी सेना में हाहाकार मच जाता। लोगों को शका होती कि यह राजपूतों की सेना बनाकर कहीं राज्य हो पर तो हाथ नहीं बढ़ाना चाहते ? इसलिए मुसलमान भी उनसे बदगुमान रहते थे। राजा साहब के मन में बार- बार प्रेरणा होती कि इस पद को त्यागकर चले जायँ, पर यह भय उन्हें रोकता था कि मेरे हटते ही प्रेजों की बन पायेगी और बादशाह उनके हाथों में कठपुतली बन जायँगे, रही-सही सेना के साथ अवध-राज्य का अस्तित्व भी मिट जायगा | अतएव इतनी कठिनाइयों के होते हुए भी चारों ओर वैर-विरोध से घिरे होने पर भी, वह अपने पद से हटने का निश्चय न कर सकते थे । सबसे कठिन समस्या यह थी कि रोशनुद्दौला भी राजा साहब से खार खाता था । उसे सदैव शका रहती कि यह मराठों से मैत्री करके अवघ-राज्य को मिटाना चाहते हैं । इसलिए वह राजा साहब के प्रत्येक कार्य में बाधा डालता रहता था। उसे अब भी आशा थी कि अवध का मुसलमानी राज्य अगर जीवित रह सकता है, तो अंग्रेजों के सरक्षण में अन्यथा वह अवश्य हिन्दुओ की बढ़ती हुई शक्ति का ग्रास बन जायगा । वास्तव में बस्तावरसिंह की दशा अत्यत करुण थी। वह अपनी चतुराई से जिह्वा की भाँति दाँतों के बीच मे पड़े हुए अपना काम किये जाते थे । यो तो वह स्वभाव के अक्खड़ थे, अपना काम निकालने के लिए मधुरता और मृदुल्ता, शील और विनय का आवाहन करते रहते थे। इससे उनके व्यवहार में कृत्रिमता आ जाती थी और वह शत्रुओं को उनकी ओर से और भी सशक बना देती थी। . 5
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