पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/५४

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शाप ६६ परिदेव के ऊपर फेंक दिया ओर तत्क्षण ही पटरे के समीर मेरे पतिदेव के स्थान पर एक विशाल सिंह दिखाई दिया। 1 ऐ मुसाफिर, अपने प्रिय पतिदेवता को यह गति देखकर मेरा रक्त सूख गया और कलेजे पर बिजली सी आ गिरी। मैं विद्याधरी के पैरों से लिपट गयी और फूट फूटकर रोने लगी। उस समय अपनी श्रोखो से देखकर अनुभव हुआ कि पातिव्रत की महिमा कितनी प्रबल है । ऐसी घटनाएँ मैंने पुराणों में पदो थीं, परन्तु मुझे विश्वास न था कि वर्तमान काल में जब कि स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध में स्वार्थ की मात्रा दिनों दिन अधिक होती जाती है, पातिव्रत धर्म में यह प्रभाव होगा; परन्तु यह नहीं कह सकती कि विद्याधरी के विचार कहो तक ठीक थे । मेरे पति विद्याधरी को सदैव बहिन कहकर संबोधित करते थे। वह अत्यन्त स्वरूपवान थे और रूपवान पुरुष की स्त्री का जीवन बहुत सुखमयी नहीं होता; पर मुझे उन पर संशय करने का अवसर कभी नहीं मिला। वह स्त्रीवतधर्म का वैसा ही पालन करते थे जैसे सनी अपने धर्म का। उनकी दृष्टि में कुचेष्टा न थी और विचार अत्यन्त उज्ज्वल और पवित्र थे। यहाँ तक कि कालिदास की गारमय करिता भी उन्हें प्रिय न थी, मगर काम के कर्मभेदी वाणों से कौन बचा है ! जिस काम ने शिव-ब्रह्मा जैते तपस्वियों की तपस्या भग कर दी, जिस काम ने नारद और विश्वामित्र जैसे नापनों के माये पर कलक का टीका लगा दिया, वह काम सब कुछ कर सकता है । सम्भव है कि सुरापान ने उद्दीपक ऋतु के साथ मिलकर उनके चित्त को विचलित कर दिया हो । मेरा गुमान तो यह है कि वह विद्यावरी की काल भ्राति यो । जो कुछ भी हो, उसने शाप दे दिया। उस समय मेरे मन में भी उत्तेजना हुई कि जिस शक्ति की विद्याधरी को गर्व है, क्या वह शक्ति मुझमे नहीं है ? क्या मैं पतिव्रता नहीं हूँ ? किन्तु हा! मैने कितना ही चाहा कि सार शब्द मुंह से निकालूँ, पर मेरी जपान बन्द हो गयी। अखण्ड विश्वात जो विद्याधरी को अपने पातिव्रत पर था, नुने न था । विवशता ने मेरे प्रतिकार के प्रावेग को शात कर दिया। मैंने रही दीनता के साथ कहा-बहिन, तुमने यह क्या किया ? 1