पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/६०

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शाप ७७ पसन्द । -- । मुसाफिर. उस प्रान्त में अब मेरा रहना कठिन हो गया । डाक् बन्दूकें लिये हुए शेरसिंह की तलाश में घूमने लगे। विवश होकर एक दिन मैं वहाँ से चल खड़ी हुई और दुर्गम पर्वतों को पार करती हुई यहाँ प्रा निकली । यह स्थान मुझे ऐसा पाया कि मैने इस गुफा को अपना घर बना लिया है। आज पूरे तीन वर्ष गुजरे जब मैंने पहले-पहल शानसरोवर के दर्शन किये। उम समय भी यही ऋतु थी। मैं ज्ञानसागर में पानी भरन गयी हुई थी, सदमा क्या देखती हूँ कि एक युवक मुश्की घोड़े पर सवार रवा जटित आभूपण पारने हाथ में चमकता हुआ भाला लिये चला जाता है । शेरसिंह को देखकर वह ठिठका और भाला सम्भालकर उनपर वार कर बेटा। तब शेरसिंह को भी क्रोध आया। उनके गरज की ऐसी गगनभेदी व्यगि उठी कि मानसरोवर का जल प्रान्दोलित हो गया और उन्होने तुरन्त घोड़े से खींचार उसकी छाती पर पजे रख दिये । मै घड़ा छोदकर दौड़ी। युवक का प्राणान्त होनेवाला ही था कि मैंने शेरसिह के गले में हाथ गल दिये और उनका सिर सहलाकर नोध शान किया। मैंने उनका ऐसा भयंकर रूप कभी नहीं देखा था। मुझे स्वयं उनके पास जाते हुए डर लगता था. पर मेरे मृदुवचनों ने अन्त में उन्हें वगीभूत कर लिया, वह अलग खड़े हो गये । युवक की छाती में गग घाब लगा था । उसे मैने इसी गुफा में लाकर रखा और उत्तकी मरहम पट्टी करने लगी। एक दिन मैं कुछ आवश्यक वस्तुएँ लेने के लिए उस करवे में गयी जिसके मन्दिर के बलश यहाँ ते दिखाई दे रहे है ; मगर वहाँ सब दूसने बन्द थीं। बाजारों में साक उड़ रही थी। चारों ओर सयापा छाया हुआ था। मैं बहुत देर तक इधर उधर धूमनी रही, किसी मनुप्य भी सूरत भी न दिखाई देनी थी कि उससे वहाँ का सब समाचार पृ । ऐसा विदित होता था, मानों यह अश्य जीवों की बस्ती है । सोच ही रहा था कि वापत चलूँ कि घोड़ो के टाग की ध्वनि कानों में आयी और एक क्षण में एक वी सिर से पैर तक काले वच धारण किये, एक काले घोदे पर उवार पाती हुई दिखायी दी। उसके पी. कई सवार और प्यारे कालो वदियों पदने आ रहे थे। अफरमान् उरा सबार सी की दृष्टि मुझ पर पड़ी। उसने घोट को एक लगानी और मेर निकट .