मानसरोवर कहती कि विद्याधरी कर्त्तव्यपथ से विचलित नहीं हुई, चाहे किसी के बहकाने से, चाहे अपने भोलेपन से, उसने कर्त्तव्य का सीधा रास्ता छोड़ दिया, परन्तु पाप कल्पना उसके दिल से कोसों दूर थी। ( १४ ) ऐ मुसाफिर, मैंने पण्डित श्रीधर का पता लगाना शुरू किया। मैं उनकी मनोवृत्ति से परिचित थी। वह श्रीरामचन्द्र के भक्त थे। कौशलपुरी की पवित्र भूमि और सरयू नदी के रमणीक तट उनके जीवन के सुखस्वप्न थे । मुझे खयाल आया कि सम्भव है, उन्होंने अयोध्या की राह ली हो । कहीं मेरे प्रयत्न से उनकी खोज मिल जाती और मैं उन्हें लाकर विद्याधरी के गले में मिला देती, तो मेरा जीवन सफल हो जाता। इस विरहणी ने बहुत दु ख मेले हैं। क्या अब भी देवताओं को उस पर दया न आयेगी ? एक दिन मैंने शेरसिंह से कहा और पाँच विश्वस्त मनुष्यो के साथ अयोध्या को चली। पहाड़ों से नीचे उतरते ही रेल मिल गयी। उसने हमारी यात्रा सुलभ कर दी। बीसवें दिन मैं अयोध्या पहुँच गयी और धर्मशाले में ठहरी। फिर सरयू में स्नान करके श्रीरामचन्द्र के दर्शन को चली। मन्दिर के आँगन में पहुँची ही थी कि पण्डित श्रीधर की सौम्यमूर्ति दिखाई दी। वह एक कुशासन पर बैठे हुए रामायण का पाठ कर रहे थे और सहस्त्रो नर-नारी बैठे हुए उनकी अमृतवाणी का आनन्द उठा रहे थे। पण्डितजी की दृष्टि मुझ पर ज्योंही पढ़ी, वह आसन से उठकर मेरे पास आये और बड़े प्रेम से मेरा स्वागत किया। दो-ढाई घटे तक उन्होंने मुझे उस मन्दिर की सैर कराई । मन्दिर की छत पर से सारा नगर शतरंज के बिसात की भाँति मेरे पैरों के नीचे फैला हुआ दिखाई देता था। मन्दगामिनी वायु सरयू की तरगों को धीरे-धीरे थपकियों दे रही थी। ऐसा जान पड़ता था मानों स्नेहमयी माता ने इस नगर को अपनी गोद में लिया हो । यहाँ से जब अपने डेरे को चली तो पण्डितजी भी मेरे साथ श्राये। जब वह इतमीनान से बैठे तो मैंने कहा-आपने तो हम लोगों से नाता ही तोड़ लिया। पण्डितजी ने दुखित होकर कहा-विधाता की यही इच्छा थी। मेरा क्या .
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