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२०
मानसरोवर


यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुड़ा लिया और पैसे निकालकर लड़कों को दे दिये ; मगर कुञ्जो जब मुलिया को देने लगा, तब उसने उसे आँगन में फेंक दिया और मुंह लपेटकर लेट गई। लड़के मेला देखने न गये।

इसके बाद दो दिन गुज़र गये मुलिया ने कुछ नहीं खाया, और पन्ना भी भूखी रही। रग्घू कभी इसे मानता, कभी उसे ; पर न यह उठती, न वह। आखिर रग्घू ने हैरान होकर मुलिया से पूछा----कुछ मुंह से तो कह, तू चाहती क्या है ?

मुलिया ने धरती को सम्बोधित करके कहा---मैं कुछ नहीं चाहती, मुझे मेरे घर पहुँचा दो।

रग्घू---अच्छा उठ, बना-खा। पहुँचा दूंगा।

मुलिया ने रग्घू की और आंखें उठाई। रग्घू उसकी सूरत देखकर डर गया। वह माधुर्य, वह मोहकता, वह लावण्य गायब हो गया था। दाँत निकल आये थे, आँखें फट गई थी और नथुने फड़क रहे थे। अँगारे की-सी लाल आँखों से देखकर बोला--अच्छा, तो काकी ने यह सलाह दी है, यह मन्त्र पढ़ाया है ? तो यहाँ ऐसी ची नहीं हूँ। तुम दोनों की छाती पर मूंग दलूंगी। हो किस फेर में।

रग्घू---अच्छा, तो मूंग ही दल लेना। कुछ खा-पी लेगो, तभी तो मूंग दल सकेगी।

मुलिया---अब तो तभी मुँह में पानी डालूंगी, जब घर अलग हो जायगा। बहुत झेल चुकी, अब नहीं झेला जाता है।

रग्घु सन्नाटे में आ गया, एक मिनट तक तो उसके मुंह से आवाज़ ही न निकली। अलग होने की उसने स्वप्न में भी कल्पना न की थी। उसने गाँव में दो-चार परिवारों को अलग होते देखा था। वह खूब जानता था, रोटी के साथ लोगों के हृदय भी अलग हो जाते हैं। अपने हमेशा के लिए वैर हो जाते हैं। फिर उनमें वहीं नाता रह जाता है, जो गाँव के और आदमियों में। रग्घू ने मन में ठान लिया था कि इस विपत्ति को घर में न आने दें गा ; मगर होनहार के सामने उसकी एक न चली। आइ। मेरे मुँह में कालिख लगेगी। दुनिया यही कहेगी कि बाप के मर जाने पर दस साल भी एक में निबाह न हो सका। फिर किससे अलग हो जाऊँ जिनकी गोद में खिलाया, जिनको बच्चों की तरह पाला, जिनके लिए तरह तरह के कुछ