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मानसरोवर


कर सकता। उसका घर है, ले ले। अपने लिए वह कोई दूसरा ठिकाना ढूंढ़ निका- लेगा। रुपिया ने इसके रूखे जीवन में एक स्निग्धता भर दी थी। जब वह एक अव्यक कामना से 'चञ्चल हो रहा था, जीवन कुछ सूना-सूना लगता था, रुपिया ने नव-वसन्त की भांति भाकर उसे पल्लवित कर दिया। मोहन को जीवन में एक मीठा स्वाद मिलने लगा। कोई काम करता होता; पर ध्यान रुपिया की ओर लगा रहता। सोचता, उसे क्या दे दे कि वह प्रसन्न हो जाय ! अब वह कौन मुंह लेकर उसके पास जाय ? क्या उससे कहे कि अम्माँ ने मुझे तुझसे मिलने को मना किया है ? सभी कल हो तो बरगद के नीचे दोनों में कैसी-कैसी बातें हुई थी। मोहन ने कहा था, रूपा, तुम इतनी सुन्दर हो, तुम्हारे सौ गाइक निकल आयेंगे। मेरे घर में तुम्हारे लिए क्या रखा है। इस पर रुपिया ने जो जवाब दिया था, वह तो संगीत की तरह अब भी उसके प्राणों में बसा हुआ था --- मैं तो तुमको चाहतो हूँ मोहन, अकेले तुमको। परगने के चौधरी हो जाव, तब भी मोहन हो; मजूरो करने लगो, तब भी मोहन - हो। उसी रुपिया से आज वह जाकर कहे-मुझे अब तुम कोई सरोकार नहीं है। 'नहीं, यह नहीं हो सकता। उसे घर की परवाह नहीं है। वह रुपिया के साथ माँ से अलग रहेगा। इस जगह न सही, किसी दुसरे महल्ले में सही। इस वक्त भी रुपिया उसकी राह देख रही होगी। कैसे अच्छे दौड़ लगाती है। कहीं अम्मा सुन पायें कि यह रात को रुपिया के द्वार पर गया था तो परान हो दे दें। दे दें परान ! अपने भाग तो नहीं बखानती कि ऐसी देवो बहू मिली जाती है । न जाने क्यों रुपिया से इतना चिढ़ती हैं। वह जरा पान खा लेती है, परा साड़ी रंगकर पहनती है। बस -यही तो।

चूड़ियों को झंकार सुनाई दी। रुपिया आ रही है। हां, वही है।

रुपिया उसके सिरहाने आकर बोली --- सो गये क्या मोइन ? घड़ी-भर से तुम्हारी राह देख रही हूँ। आये क्यों नहीं ?

मोहन नींद का मक्कर किये पड़ा रहा।

रुपिया ने उसका सिर हिलाकर फिर कहा --- क्या सो गये मोहन ?

उन कोमल उंगलियों के स्पर्श में क्या सिद्धि थी, कौन जाने। मोहन की सारी आत्मा उन्मत्त हो उठी। उसके प्राण मानों बाहर निकलकर रुपिया के चरणों में सम- पित हो जाने के लिए उछल पड़े। देवी घरदान लिये सामने खड़ी है। सारा विश्व