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मानसरोवर


नहीं दिखाई गई। नियमानुसार ये सब सामान उसके पास आने चाहिए थे। वह प्रत्येक वस्तु को देखती, उसे पसन्द करती, उसकी मात्रा में कमो-वेशी का फैसला करती ; तब इन चीज़ों छौ भण्डारे में रखा जाता है क्यों उसे दिखाने और उसको राय लेने की ज़रूरत नहीं समझो गई ? अच्छा ! वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया है उसने तो पाँच चोरों के लिए कहा था। घी भी पाँच ही कनस्तर है। उसने तो इस नस्तर मँगवाये थे ? इसी तरह शा-भाजी, शक्कर, दही आदि में भी कम की गई होगी। किसने उसके हुक्म में हस्तक्षेप किया है जब उसने एक बात तय कर दी, तब किसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधिकार है ?

आज चालीस वर्षों से घर के प्रत्येक मामले में फूलमती की बात सर्वमान्य थी। उसने सौं कहा तो सौ खर्च किये गये, एक कहा तो एक। किसी ने मीन-मेष को। यहाँ तक कि पं० अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ न करते थे; पर आज उसकी आंखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से उसके हुई जा रही हैं। इसे यह क्योंकर स्वीकार कर सकती !

कुछ देर तक तो वह जब्त किये बैठी रही ; पर अन्त में न रहा गया। स्वायत्त शासन उसका स्वभाव हो गया था। वह क्रोध में भरी हुई आई और कामतानाथ से बोली---क्या आटा तीन ही बोरे लाचे ? मैंने तो पाँच बौरे के लिए कहा था। और बी भी पाँच ही दिन मंगवाया ! तुम्हें याद है, मैंने दस कनस्तर कहा है किफ़ायत को मैं बुरा नहीं समझती ; लेकिन जिसने यह कुआँ खोदा उसी की आत्मा पानी को तरसे, यह कितनी लज्जा की बात है।

कामतानाथ ने क्षमा-याचना न की, अपनी भूल भी स्वीकार न की, लज्जित भी नहीं हुआ। एक मिनट तो विद्रोही भाव से खड़ा रहा, फिर धोला--हम लोगों को पुलाह तीन ही वोरों की हुई और तीन छोरे के लिए पाँच टिन घो काफ़ी था। इसी हिसाब से और चीजें भी झूम कर दी गई हैं।

फूलमती उग्र होकर बोली --- किसकी राय से आटा कम किया गया ?

‘हम लोगों की राय से।’

‘तो मेरी राय कोई चीज़ नहीं है ?

‘है क्यों नहीं ; लेकिन अपना हानि-लाभ तो हम भी समझते हैं।'

फूलमतो इक्का-बक्का होकर उसका मुंह ताकने लगी । इस वाक्य का आशय उसकी