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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधु विनोद यह दुर्मिला सवैया है, जिसमें आठ सगए होते हैं। इस बृया- नुप्रास का विशेष बल हैं । प्रथम पद में चार उपमानों की हिंदी से चतुर्थ प्रतीप हुआ है। पलकोट की ओट बचाय कै चट' में समाद रूपक है । अभिलाख चित्त करता है न #ि आँखें, सो यहाँ रूढ़ि- लक्षणः आती है। अाँखों के लिये सक्ष कुछ किया, पर उन्होंने छोड दिया, सौं प्रथम लेशालंकार हुआ । गुण नै गुण नहीं हुआ, सौ. प्रथम अवज्ञा भी हुई । नेत्र हितकारी हैं। उनके अहितकर वर्णन से प्रथम व्याधात अलंकार है। यहाँ शुद्ध परकीया नायिका का पूर्वा नुराग सबल रूप से है, जिससे व्यंजक पात्र एवं अर्थतरसंक्रमित वाच्य ध्वनि है। प्रथम पद में मुग्धा ज्ञातयौवना, एवं रूपगर्विता को प्राधान्य है, द्वितीय में मध्य और तृतीय मैं प्रौदा की । कुल छंद मैं प्रौढ़ी की सबलता हैं। प्रथम तीन पर्यों में से इसी प्रकार एक-एक में स्वकीया, परकीया तथा गणिका नायिका हैं हैं, परंतु छंद-भर में नगर परकीया का प्राधान्य है। गुणों में यहाँ माध कम प्राधान्य है, परंतु समता और अर्थ व्यक़ भी हैं। छंद मैं कैशिकी वृत्ति है। रसों की यहाँ अच्छी बहार है । देवजी कहते हैं कि--- ‘बाहर भीतर भाव ज्य, रसन करत संचार ।। त्य ही रस भावन. सहित, संचारी सिंगार । • यह सूक्ष्म रीति जानत रसिक, जिनके अनुभव सब रसन ।'

  • यहाँ प्रथम पद में वीर-रस का संचार है, एवं द्वितीय में भया-

नक्क सथा सृतीय में अद्भुत का । ये दोनों ऋगार के पक्क हैं। गौ-रूप में नायक के दर्शन को यहाँ स्थायी भाव माना होगा । पूर्वानुराग उसी दर्शन का फल है। आलंबन नायिका है और प्रच्छन्न रूप से नायक भी । उद्दीपन का कथन यहाँ अंजन, मंजन द्वारा हुआ है। अभिलार्षों का खाना तथा पूरा करना अनुभाच है और पलट की ओट चोट बचाना द्रीडासंचारी दिखाता है। चतुर्थ पद