पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उत्तरालंकृत प्रकरण ।' (१७२,१ से १८८९ तक) पच्चीसवाँ अध्याय । उत्तरालंकृत हिन्दी । सुर, तुलसी, भूपण और देव का समय हिन्दी साहित्य के ख्यि जैसी प्रतिष्ठा और गैरव का दु जैसा कि देखने की हिन्दी के शाग्य में प्रय तक नदी बड़ा था। इस दास और गद्माकर चाळे फाल में उस समय के देखने संग्त्या में फचिंग अधिक हुए, र उत्कृष्ट कदि भी विशेषता से पाये जाते हैं, पर पद् उत्तमता इस काल के फपियां में नहीं है, जो उस समय दृष्ट-पथ में आता है। इस काल का एक भी कवि नवरत्न मैं नहीं पहुँचा। परन्तु इयण फी छेड़ अन्य थैठियों में इस समय पहले से बहुत अधिक उत्कृष्ट फर्षि हुए। महाराज में इस काल महाराजा रघुरास ६ रीचाँ- नरेश तथा महाराजा बलवानसिं ६ कादो-नरेश ने कविता की । वाल्लुकदारों में राजा गुरुदत्तसइ अमेठी चाकै इस समय बहुत अझै कवि ही पये और तैरवा वाले राजा जसवातसई ने भी सराहनीय कचिंता की।