पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/२६२

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वर्तमान प्रकरण पर देखता और अपनी कविता में उसे हर स्थान पर सन्निविष्ट करता था। रूपक भी भारतेंदुजी ने बहुत विशद लिखे हैं । राजनीतिक तथा सामाजिक सुधारों पर इन्होंने अपने विचार जगह-जगह पर सबल भाषा में प्रकट किए हैं । इस कविरत्न ने पथ में ब्रजभाषा का और गद्य में खड़ी-बोली का विशेषतया प्रयोग किया है, परंतु उर्दू, खड़ी-बोली, ब्रजभाषा, माहवारी, गुजराती, बंगला, पंजाबी, मराठी, राजपूतानी, बनारसी, अवधी आदि सभी भाषाओं में उत्कृष्ट और सरस रचनाएँ की हैं। इन्होंने गद्य और पद्य प्रायः बराबर लिखे हैं। ग्रंथों के अतिरिक्त बाबू साहब ने कई समाचारपत्र और पत्रिकाएँ चलाई । वर्तमान हिंदी की इनके कारण इतनी उन्नति हुई कि इनको इसका जन्मदाता कहने में भी अत्युक्ति न होगी । यदि इनका विशेष वर्णन देखना हो, तो हमारे रचित नवरत्न में देखिए । 'उदाहरण- हम हुँ सब जानती लोक की चालन क्यों इतनो बतरावती हौ। हित जामैं हमारो बनै सो करौ सखियाँ तुम मेरी कहावती हो। हरिचंदजू या मैं न लाभ कछू हमैं बातन क्यों बहरावती हौ । सजनी मन हाथ हमारे नहीं तुम कौन को का समुझावसी हो ॥१॥ पचि मरत वृथा सब लोग जोग सिग्धारी; साँची जोगिन पिय बिना वियोगिन नारी। बिरहागिनि धूनी चारों ओर लगाई बंसीधुनि की मुद्रा कानों पहिराई । लट उरझि रही सोइ लटकाई लट कारी; साँची जोगिन पिय बिना वियोगिन नारी । है यह सोहाग का अटल हमारे बाना; . असगुन की मूरति खाक न कभी चढ़ाना। 'सिर सेंदुर देकर चोटी गूथ बनाना;