उसका सिक्का हमारी भाषा पर मानो अटल कर दिया । अवश्य ही बीच-
बीच में कोई-कोई लेखक अवधी, खड़ी बोली और अन्य प्रकार की
भाषाओं में कविता करते रहे, और स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी ने
अपनी अधिकांश रचनाओं में अवधी भाषा को ही विशेष प्रादर दिया,
तो भी प्रायः ६० सैकड़े कविजन बरावर व्रजभाषा ही से अनुरक्त
रहे । उत्तरालंकृत काल में जल्लूलाल ने प्रेमसागर की रचना ब्रजभाषा-
मिश्रित खड़ी बोली में की, पर उसमें भी उन्होंने छंद व्रजभाषा ही
के रक्खे । उन्हीं के साथ सदल मिश्र ने खड़ी बोली में उत्तम
रचना की। परिवर्तन-काल में गणेशप्रसाद, राजा शिवप्रसाद, राजा
लक्ष्मणसिंह, स्वामी दयानंद, बालकृष्ण भट्ट आदि महानुभावों के
प्रयत्न से लोगों को समझ पड़ने लगा कि हिंदी गद्य एवं पद्य तक में
यह आवश्यकता नहीं कि ब्रजभाषा का ही सहारा लिया जाय । पद्य
में तो कुछ-कुछ श्राजदिन तक ब्रजभाषा का प्रभुत्व कई अंशों में
वर्तमान है, और अभी कुछ समय तक हमारे पुरानी प्रथा के कविजन
इसकी ममता छोड़ते नहीं दिखाई पड़ते । पर गद्य में इसी परिवर्तन-
काल से खड़ी बोली का पूर्ण प्रभुत्व जम गया और पद्य में भी उसका
यथेष्ट आदर होने लगा है।
अँगरेज़ी साम्राज्य स्थापित होने से जहाँ देश को अन्य अनेक लाभ
हुए, वहाँ साहित्य ही जैसे विमुख रह जाता । जीवन-होड़ के प्रादु-
भर्भाव से ही उन्नति का सुविशाल द्वार खुला करता है। जब तक
किसी को विना हाथ-पैर हिलाए मिलता जाता है, तब तक विशेष
उन्नति की ओर उसका चित्त नहीं आकर्षित होता, पर जब मनुष्य
देखता है कि अब तो विना परिश्रम के काम नहीं चलता और आलसी
बने रहने से अन्य उन्नत पुरुषों के सामने उसे नित्यप्रति नीचे ही
खिसकना पड़ेगा, तभी उसमें उन्नति के विचार जागृत होते हैं, और
जातीय एवं व्यक्तिगत होड़ में उसे क्रमशः सफलता प्राप्त होने लगती
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मिश्रबंधु-विनोद