पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ४.pdf/२

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पूर्व नूतन को पसंद आए । इनमें लोक-रंजन की मात्रा बहुत प्राचुर्य से है और उपदेश भी अच्छे मिलते हैं, किंतु असंभवनीयता के कारण इनका साहित्यिक मूल्य अधिक नहीं है । भाषा इनकी चलती हुई कुछ-कुछ उदूपन लिए हुए सुपाख्य तथा सुबोध है ।। हमने चीरमणि-नामक एक ही उपन्यास-ग्रंथ लिखा है, जिसमें औपन्यासिक घुमाव का प्राचुर्य न होते हुए उपदेशकपन अधिकृत से है। सामाजिक उपन्यास होकर वह ऐतिहासिकपन एवं धर्मोपदेश के घुट लिए हुए है। ब्रजनंदनप्रसाद साधारणतया अच्छे औएन्यासिक हैं । रूपनारायणजी पांडेय के मौलिक उपन्यास बुरे नहीं हैं। फलतः पूर्व नूतन परिपाटी के लेखकों द्वारा इस विभाग की कुछ अच्छी पूर्ति हुई है । आख्यायिका के विषय का आरंभ गिरिजाकुमार घोप (१६६०) ने कर दिया है, किंतु यह विषय प्रौढ़ता पर आगे आनेवाला है। | सत्कवियों में भारतेंदु-काल में प्रतापनारायण मिश्र, ललित, श्रीधर पाठक, बलदेव श्रादि ऐसे महाशय थे, जो पूर्व नूतन परिपाटी-काल में भी रचना करते रहे । नूतन काल के सुकवियों में निम्न-महाशयों के नाम गिनाए जा सकते हैं—विशाल, द्विजराज, ब्रजराज, अयोध्या सिंह उपाध्याय ( १९४७ ), कन्हैयालालं पोद्दार ( १६४७ ), जगन्नाथदास रत्नाकर ( १९४८ ), शिधबिहारीलाल मिश्र ( १९४८ ), जंगलीलाल ( १९४८ ), सुखराम चौबे ( १६४६ ), सीताराम उपाध्याय ( १९४३ ), रघुनाथप्रसाद शर्मा | ( १९५० ), भागवतप्रसाद ( १९५० ), दामोदरसहायसिंह - ( १९५१ ), जयदेवजी भाट ( १९५३ ), मथुराप्रसाद पांडेय ( १९५३), प्रबोधचंद ( १९५४ ), भगवानदीन मिश्र ( १९४४ ), बनवारीलाल (१९५५), राय देवीप्रसाद पूर्ण ( १९५५), अक्षयचट. मिश्र ( १९१६ }, बक्सराम पांडे (१९५८ ), क्षमापति