पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१०३

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम् ॥ ६॥ सत्य ही जयको प्राप्त होता है, मिथ्या नहीं। सत्यसे देवयान- मार्गका विस्तार होता है, जिसके द्वारा आप्तकाम ऋषिलोग उस पदको प्राप्त होते हैं जहाँ वह सत्यका परम निधान ( भण्डार) वर्तमान है ॥६॥ सत्यमेव सत्यवानेव जयति सत्य अर्थात् सत्यवान् ही जय- को प्राप्त होता है, मिथ्या यानी नानृतं नानृतवादीत्यर्थः । न , मिथ्यावादी नहीं । [ यह 'सत्य' और 'अनृत' का सत्यवान् और हि सत्यानृतयोः केवलयोः मिथ्यावादी अर्थ इसलिये किया पुरुषानाश्रितयोर्जयः पराजयो गया है कि] पुरुषका आश्रय न करनेवाले केवल सत्य और मिथ्या- वा सम्भवति । प्रसिद्ध लोके का ही जय या पराजय नही हो सकता | लोकमें प्रसिद्ध ही है कि मत्यवादिनानृतवाद्यभिभूयते न सत्यवादीसे मिथ्यावादीको ही नीचा विपर्ययोऽतः सिद्धं सत्यस्य बल- देखना पड़ता है, इसके विपरीत नहीं होता। इससे सत्यका प्रबल वत्साधनत्वम् । साधनत्व सिद्ध होता है। किं च शास्वतोऽप्यवगम्यते यही नही, सत्यका उत्कृष्ट शास्त्रसे भी सत्यस्य साधनातिशयत्वम् । जाता है । किस प्रकार ? [ सो कथम् ? सत्येन यथाभूतवाद- बतलाते हैं- सत्य अर्थात् यथार्थ व्यवस्थया पन्था देवयानाख्यो वचनकी व्यवस्थासे देवयानसंज्ञक विततो विस्तीर्णः सातत्येन प्रवृत्तः । मार्ग विस्तीर्ण यानी नैरन्तर्यसे प्रवृत्त येन यथा ह्याक्रमन्ति क्रमन्त होता है, जिस मार्गसे कपट, छल, ऋषयो दर्शनवन्तः कुहकमाया- शठता, अहङ्कार, दम्भ और अनृतसे साधनत्व जाना