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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/२९

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ २१ मननामक अन्तःकरण उत्पन्न दायबीजाङ्कुरोजगदात्माभिजायत बीजका अङ्कुर जगदात्मा उत्पन्न होता है । यहाँ प्राण शब्दका 'अभिजायते' इत्यनुषङ्गः। क्रियासे सम्बन्ध है। तस्साच प्राणान्मनो मनआख्यं तथा उस प्राणसे मन यानी मङ्कल्पविकल्पसंशयनिर्णयाद्या- संकल्प-विकल्प-संशय-निर्णयात्मक त्मकमभिजायते । ततोऽपि होता है । उस सङ्कल्पादिरूप सङ्कल्पाद्यात्मकान्मनसः सत्यं मनसे भी सत्य-सत्यनामक मत्याख्यमाकाशादि भूतपञ्चकम् आकाशादि भूतपञ्चककी उत्पत्ति अभिजायते । तस्मात्सत्याख्याद्भूत- होती है । फिर उस सत्यसंज्ञक भूतपञ्चकसे ब्रह्माण्डक्रमसे भूः पञ्चकाद् अण्डक्रमेण सप्तलोका आदि सात लोक उत्पन्न होते हैं । भूगदयः । तेषु मनुष्यादिप्राणि- उनमें मनुष्यादि प्राणियोंके वर्ण और आश्रमके क्रमसे कर्म होते हैं वर्णाश्रमक्रमेण कर्माणि । कर्मसु तथा उन निमित्तभूत कमोंसे अमृत- च निमित्तभृतेष्वमृतं कर्मजं कर्मजनित फल होता है । जबतक फलम् । यावत्कर्माणि कल्पकोटि- सौ करोड़ कल्पतक भी कर्मोका नाश नहीं होता तबतक उनका शतैगपि न विनश्यन्ति तावत्फलं फल भी नष्ट नहीं होता; इसलिये न विनश्यति इत्यमृतम् ॥८॥ कर्मफलको 'अमृत' कहा है ॥८॥ उक्तमेवार्थमुपसंजिहीर्घमन्त्री पूर्वोक्त अर्थका ही उपसंहार करनेकी इच्छावाला [ यह नवम ] मन्त्र आगे कहा जानेवाला अर्थ वक्ष्यमाणार्थमाह- कहता है- प्रकरणका उपसंहार यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः । तस्मादेतहह्म नाम रूपमन्नं च यते ॥ ६ ॥