पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ ३३ समान वृक्षपर रहनेवाले दो पक्षी द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषखजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्य- नश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ १॥ साथ-साथ रहनेवाले तथा समान आख्यानवाले दो पक्षी एक ही वृक्षका आश्रय करके रहते हैं। उनमें एक तो स्वादिष्ट ( मधुर ) पिप्पल (कर्मफल ) का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है॥ १॥ द्वा द्वौ सुपर्णा सुपर्णी शोभन [जीव और ईश्वररूप] दो सुपर्ण-सुन्दर पर्णवाले अर्थात् पतनी सुपर्णी पक्षिसामान्याद्वा [नियम्य-नियामकभावको प्राप्तिरूप] शोभन पतनवाले* अथवा पक्षियोके सुपर्णो सयुजा सयुजी सहैव समान [वृक्षपर निवास तथा फलभोग करनेवाले ] होनेसे सुपर्ण-पक्षी सर्वदा युक्तौ सखाया सखायो तथा सयुज-सर्वदा साथ-साथ ही रहनेवाले और सखा यानी समान समानाख्यानो समानाभिव्यक्ति- आख्यानवाले अर्थात् जिनकी अभि- कारणावेवंभूतो सन्तो समान- व्यक्तिका कारण समान है ऐसे दो सुपर्ण समान-सामान्यरूपसे मविशेषमुपलब्ध्यधिष्ठानतर्यकं वृक्षं दोनोंकी] उपलब्धिका कारण होनेसे एक हीवृक्ष-वृक्षके समान उच्छेदमें वृक्षमिवोच्छेदनसामान्याच्छरीरं समानता होनेके कारण शरीररूप

  • ईश्वर सर्वज्ञ होनेके कारण नियामक है तथा जीव अल्पज्ञ होनेसे

नियम्य है । इसलिये उनमें नियम्य-नियामकभावकी प्राप्ति उचित ही है।