पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/९६

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८८ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ यदा यस्मिन्काले पश्य: जिस समय देखनेवाला होनेके पश्यतीति विद्वान्साधक इत्यर्थः। कारण पश्य-द्रष्टा विद्वान् अर्थात् रुक्मवर्ण-खयंप्रकाश- पश्यते पश्यति पूर्ववद्रुक्मवर्ण साधक खयंज्योतिःस्वभाव रुक्मस्येव वा खरूप अथवा सुवर्णके समान जिसका प्रकाश अविनाशी है उस सकल- ज्योतिरस्याविनाशि कर्तारं सर्वस्य जगत्कर्ता ईश्वर पुरुष ब्रह्मयोनि- जगत ईशं पुरुषं ब्रमयोनि को-जो ब्रह्म है और योनि भी ब्रह्म च तद्योनिश्चासो ब्रह्म- है अथवा जो अपर ब्रह्म ( ब्रह्मा ) योनिस्तं ब्रह्मयोनि ब्रह्मणो की योनि है उस ब्रह्मयोनिको वापरस्य योनिं स यदा चैवं इस प्रकार पूर्ववत् देखता है उस समय पश्यति तदा स विद्वान्पश्यः वह विद्वान् द्रष्टा पुण्य-पाप यानी पुण्यपापे बन्धनभूते कर्मणी अपने बन्धनभूत कर्मोको समूल समूले विध्य निरस्य दग्धा त्यागकर-भस्म करके निरञ्जन-- निरञ्जनो निर्लेपो विगतक्लेशः निर्लेप अर्थात् क्लेशरहित होकर अद्वयरूप परम-उत्कृष्ट यानी परमं प्रकृष्टं निरतिशयं साम्यं निरतिशय समताको प्राप्त हो जाता समतामद्वयलक्षणं द्वैतविषयाणि है । द्वैतविषयक समता इस साम्पान्यतोर्वाञ्येवातोऽद्वय- अद्वैतरूप साम्यसे निकृष्ट ही है; लक्षणमेतत्परमं साम्यमुपैति अतः वह अद्वैतरूप परम साम्यको प्रतिपद्यते ॥३॥ प्राप्त हो जाता है ॥३॥ श्रेष्ठतम ब्रह्मज्ञ किंच- तथा- प्राणो होष यः सर्वभूतैर्विभाति विजानन्विद्वान्भवते नातिवादी ।