पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पूर बतर्थ अंक मलयशेतु-मित्र भागुरायण! अब त कुसुमपुर की बातें हों तब तक हम लोग इधर ही ठहर कर सुनें कि क्या बात होती है। क्योंकि- भेद न कछु जामें खुलै याही भय सब ठौर । नृप सों मंत्रीजन कहहिं बात और की और ।। भाग रायण-जो आज्ञा ! दोनों ठहर जाते हैं। राक्षस-क्यों जी १ वह काम 'सद्ध हुमा। करमक-अमात्य की कृपा से सब काम सिद्ध ही है। मलयकेतु-मित्र भागुरायण ! वह कौन सा काम है ? भागुरायण-कुमार ! मंत्री के जी की बातें बड़ी गुप्त हैं। कौन ११० जाने ? इससे देखिए अभी मा लेते हैं कि क्या कहते हैं। राक्षस-अजी भली भाँति कहो। करभक-सुनिए। जिस समय आपने अज्ञा दो कि करभक तुम जाकर बैतालिक स्तनकलस से कह दे कि जब जब चाणक्य चंद्रगुप्त की आज्ञा भंग करे तब तब तुम ऐसे श्लोक पढ़ो जिससे ससका जी और भी फिर जाय। राक्षस-हां, तब? करभक-तब मैंने पटने में जाकर स्तनकलस से आपका सँदेसा कह दिया। राक्षस-तब ? करभक-इसके पीछे नंदकुल के 'वनास से दुखी लोगों का जी बहलाने के हेतु चंद्रगुप्त ने कुसुमपुर में कौमुदी-महोत्सव होने की डौंडी पिटा दी और उसको बहुत दिन से बिछुड़े हुए मित्रों के मिलाप की भांति पुर के निवासियों ने बड़ी प्रसन्नता-पूर्वक स्नेह से मान लिया। राक्षस- माँसू भरकर ) हा, देव नंद ! जदपि उदित कुमुदन सहित पाइ चांदनी चंद। ___- तदपि न तुम बिन लसत हे नृपससि १ जगदानंद ।। हाँ, फिर क्या हुआ?