पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१४८

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राक्षस-(दुःख से आप ही आप ) हा ! यह और जले पर नमक है। ( प्रगट कानों पर हाथ रखकर ) नारायण ! देव पर्वतेश्वर का कोई अपराध हमने नहीं किया। , मलयकेतु-फिर पिता को किसने मारा ? रक्षस-यह दैव से पूछो। मलयकेतु-दैव से पूछे जीवसिद्धि क्षपणक से न पूछे१ ४२० राक्षस-(आप ही श्राप ) क्या जीवसिद्धि भी चाणक्य का 'गुप्तचर है ! हाय ! शत्रु ने हमारे हृदय पर भी अधिकार कर लिया। थै मलयकेत-( क्रोध से ) मासुरक ! शिखर सेना सेनापति से कहो कि राक्षस से मिलकर चद्रगुप्त को प्रसन्न करने को पाँच राजे जो हमारा बुरा चाहते हैं, उनमें कोलूत चित्रवर्मा, मलयाधिपति सिंहनाद और काश्मीरमधीश पुष्कराक्ष ये तीन हमारो भूमि की कामना रखते हैं, सो इनको भूमि ही में गाड़ दे और सिंधुराज सुखेण और पारसीकपति मेघाक्ष हमारी हाथी की सेना चाहते हैं सो इनको हाथी ही के पैर के नीचे पिसवा दे। पुरुष-जो कुमार की आज्ञा । ( जाता है ) मलयकेतु-राक्षस ! हम मलयकेतु हैं, कुछ तुमसे विश्वासघाती राक्षस नहीं हैं, इससे तुम जाकर अच्छी तरह चंद्रगुप्त का आश्रय करो। चंद्रगुप्त चाणक्य सों मिलिए सुख सो आप । हम सानहुँ को नासिहैं जिमि त्रिवर्ग कह पाप ॥ भामुरायण-कुमार ! व्यर्थे अब कालक्षेप मत कीजिए। कुसमपर घेरने का हमारी सेना चढ़ चुकी है। उतिकै तियगन गंड जुगुल कहँ मलिन बनावति । अलिकुल से कल अलकन निज कन धवल छवावति ॥ चहल तुरगखुर-घात उठी घन घुमहि नवीनी। शत्रु .सीस पैं. धूरि परै गजमद सों भीनी ॥ [अपने मृत्यों के साथ मलयकेतु जाता है ]