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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२४८

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२८६ मुद्राराक्षस नाटक दिया और जिसके यरा रूपी सूर्य के आगे शिवि का यश दीपक के समान है। इसमें यह भाव है कि शिवि ने सत्ययुग के पुरुष होने पर जो पिया वह चंदनदास ने कलियुग में कर दिखाया इससे वह बढ़ कर है: (व्यतिरेकालंकार )। मूल के 'परं रक्षता' के स्थान पर अनुवाद में मित्र हित होने से वह भ्राव कुछ फीका पड़ गया । यश का सूर्य तथा दीपक से उपमा देना अनुवाद में अधिक है। २. जिसके सुचरित्र, दया आदि को नित्य ही देखकर तथा विशुद्ध मान कर सभी बौद्ध मतावलंबी लज्जित हो गए। ३. रे दुष्ट ! जिसके लिए तू इस पूजा के योग्य पुरुष को पकड़ कर भारता है वह तेरा शत्रु मैं आप ही यहाँ उपस्थित हूँ। इस दोहे में परिवृत अलंकार की ध्वनि निकलती है। ६६-कुछ प्रतियों में कोष्ठक के पहले 'एदु अमच्चा' हैं अर्थात सात्य आइये। ६७.-सेना-संचय-सेना का समह, बड़ी सेना। कुछ प्रतियों में केवल 'नंदकुल नग कुनिसस' है अर्थात् 'नंदकुल रूपी पर्वत के लिये वज्र। १०५.८-किसने भग्नि की (ऊँची उठती हुई) कठिन ज्याला को अपने वस्त्र में बाँध लिया ? (सतत गमन शील ) वायु की गति को डोरियों के जाल से किसने रोक दिया। हाथियों को मदन करने - वाले सिंह को (जिसके बाल हाथियों के मद से सुरभित हो गए) पिंजड़े में किसने बंद किया। किसने केवल अपने हाथों के बन से समुद्र को (जिसमें भयंकर घड़ियाल. और मगर भरे हुए हैं) पार किया है। ___ कोष्ठकांतर्गत अंश मूल में अधिक है। राक्षस के संयमन रूपी होती हुई भसंभव बात को पूर्वोक्त चार न होने योग्य वस्तु-प्रबन्ध से सादृश्य दिखलाने के कारण निदर्शना अलंकार है। प्रथम में लेने की क्रिया दोनों में एक होने से बिंव-प्रति-बिव-भाव है