पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/५७

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मी मनुष्य इसका श्राशय न समझ सका, किंतु चंद्रगुप्त ने सोचकर कहा कि अँगीठी यह दिखलाने को भेजी है कि मेरा क्रोध अग्नि है और सरसों यह सूचना कराती है कि मेरी सेना असंख्या है और फल भेजने का प्राशय यह है कि मेरी मित्रता का फल मधुर है। इसके उत्तर में चंद्रगुप्त ने एक घड़ा जल और एक पिंजड़े में थोड़े से तीतर और एक अमूल्य रत्न भेजा जिसका आशय यह था कि तुम्हारा क्रोध इमारी नीति से सहज ही बुझाश जा सकता है और तुम्हारी सेना कितनी भी असंख्य क्यों न हो हमारे वीर . उसको भक्षण करने में समथ हैं और हमारी मित्रता सदा अमूल्य और एक रस है। ऐसे ही तीन पुतलीवाली कहानी भी इसी के साथ प्रसिद्ध है। इसी बुद्धिमानी के कारण चंद्रगुप्त से उसके भाई लोग बुरा मानते थे और. महा- नन्द भी अपने औरस पुत्रों का पक्ष करके इससे कुढ़ता था। यह यद्यपि शुद्रा के गर्भ से था, परंतु ज्येष्ठ होने के कारण अपने को राज का भागी समझता था और इसीसे इसका राजपरिवार से पूर्ण वैमनस्य था चाणक्य और शकटार ने इसीसे निश्चय किया कि हम लोग चंद्रगुप्त को राज का याहि पठायो जरासुत नै अवलोकहु नीके अधीरज लाय कै। पुत्र खाय कै नातिन पाय के जीही जै पाय कै कौन उपायकै ॥२॥ दोहा-मुनत चार तिहि हाथ लै, गयो भैम दरबार । बासव ऐसे कैक सब, जहँ बैठे सरदार ॥३॥ अदिल्ल-जाय जरासुत दूत भैमपति पद पर्यो । देखि जराऊ जगह हिये संभ्रम भर्यो । जगत जरावन द्रव्य पात आगे धर्यो। सोच जराइधै अभय हाल बरनन कर्यो ॥४॥ सुनि विहंसे जदुबीर जीत की चाय सों। इंसि बोले गोविन्द कहहु यह रायसों। · उचित ससुरपन कीन क्षत्रकुल न्याय सों। • चहो दमाद सहाय सुताकी हाय सो ॥५॥