तथा प्रसिद्ध राजवंश का कोई प्रतापी पुरुष होना चाहिए । रसं
और वीर ही नाटक के अंगी या प्रधान रस है। अन्य गौण
है। संधिस्थल में अद्भुन का समावेश होना चाहिए।
अभिनय के प्रारंभ में मङ्गलाचरण या नांदी होता है, जिसे है। इसके अनंतर सूत्रधार या प्रधान नट, जिसे स्थापक भी कहते और सभा की प्रशंसा करता है। वह नटी या अन्य नट ऊ वार्तालाप कर अभिनय किये जाने वाले नाटक का प्रस्ताव, आदि बतला देना है। इसे पस्तावना कहते हैं, जो पाँच प्रकार व उद्घात्मक, कयोदवात, प्रयोगातिशय, प्रवर्तक और भागलित नाटक में, पस्तावना के प्रथम रूप का प्रयोग है।
प्रत्येक नाट्य के तीन आवश्यक तत्व माने गए हैं-वस्तु
सामिस इतिवृत्त को लेकर नाटक की रचना होती है उसे वर
यह दो प्रकार की होती है-आधिकारिक या प्रासंगिक । जो :
इतिवृत्त का प्रधान होता है उसे अधिकारी कहते हैं और उस
वर्णन प्राधि हारिक वस्तु कहलाता है। इस अधिकारी के उपत्र
के लिए प्रसंगवश जि का वर्णन आता है, उसे प्रासंगिक वस्तु का
के अंतर्गत प्रयोजन सिद्धि के लिये बीज, बिंदु, पताका, प्रहरी अ
है । जो बात प्रारंभ में संक्षेपतः कहे जाने पर चारों ओर फैल
क न सिद्धि का प्रथम कारण होती है, उसे बीज कहते हैं। किसी
पूरा होने पर दूसरे असंबद्ध वाक्य इस प्रकार लाना कि वे असं
कह नाता है। व्यापक प्रसंग के वर्णन को पताका और देश-
वर्ण को प्रकरी कहते हैं। प्रारंभ की हुई क्रिया को फलपिद्धि
कुछ किया जाय, उसे कार्य कहते हैं। कथावस्तु के घटनाक्रम
पांच अन्य विभाग भी किए गए हैं, जो प्रारंभ, यत्न, प्राप्त्यार
और फज्ञागम कहलाते हैं। फलप्राप्ति की जो उत्कंठा होती है,
से घटक का आरम्भ होता है। उस फल की प्राप्ति के लिये जो
किया जाता है, उसे यत्न कहते हैं। इसके अनंतर प्राप्ति की
प्र. ना कहलाता है जब विघ्नों का नाश हो जाता है और प्र